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________________ ३४ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास औदारिककाययोग, वैक्रियिककाययोग एवं आहारककाययोग पर्याप्तकों के होता है। औदारिकमिश्रकाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग एवं आहारकमिश्रकाययोग अपर्याप्तकों के होता है।' प्रथम पृथ्वी के नारकी मिथ्यादृष्टि एवं असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पर्याप्तक भी होते हैं तथा अपर्याप्तक भी, किन्तु सासादनसम्यग्दृष्टि एवं सम्यक्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में नियमतः पर्याप्तक होते हैं। द्वितीय पृथ्वी से लेकर सप्तम पृथ्वी तक के नारकी मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में पर्याप्तक भी होते हैं एवं अपर्याप्तक भी, किन्तु सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यक्-मिथ्यादृष्टि एवं असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में नियमतः पर्याप्तक होते हैं । तिर्यञ्च मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि एवं असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पर्याप्तक भी होते हैं तथा अपर्याप्तक भो, किन्तु सम्यक्-मिथ्यादृष्टि एवं संयतासंयत गणस्थान में नियमतः पर्याप्तक होते हैं । योनिवाले पंचेन्द्रियतिर्यञ्च मिथ्यादृष्टि एवं सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पर्याप्तक भी होते हैं तथा अपर्याप्तक भी, किन्तु सम्यक्-मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि एवं संयतासंयत गुणस्थान में नियमतः पर्याप्तक होते हैं । मनुष्य मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि एवं असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पर्याप्तक भी होते हैं तथा अपर्याप्तक भी, किन्तु सम्यक्-मिथ्यादृष्टि, संयतासंयत एवं संयत गुणस्थान में नियमतः पर्याप्तक होते हैं।४ स्त्रियाँ मिथ्यादृष्टि एवं सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पर्याप्तक भी होती हैं व अपर्याप्तक भी, किन्तु सम्यक्-मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, एवं संयतासंयत" गुणस्थान में नियमतः पर्याप्तक होती हैं। देव मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि एवं असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पर्याप्तक भी होते हैं और अपर्याप्तक भी, किन्तु सम्यक्-मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में नियमतः पर्याप्तक होते हैं । भवनवासी, वानव्यन्तर एवं ज्योतिष्क देव व देवियाँ तथा सौधर्म एवं ईशान कल्पवासिनी देवियाँ-ये सब मिथ्यादृष्टि एवं सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पर्याप्तक भी होते हैं और अपर्याप्तक भी, किन्तु सम्यक्१. सू. ७६-७८. २. सू. ७९-८३. ३. सू. ८४-८८. ४. सू. ८९-९१, ५. षटखण्डागम ( पुस्तक १, पृ० ३३२ ) के हिन्दी अनुवाद में संयत गुणस्थान का भी उल्लेख है। टिप्पणी में लिखा है : अत्र ‘संजद' इति पाठशेषः प्रतिभाति । ६. सू. ९२-९३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002097
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, Agam, Karma, Achar, & Philosophy
File Size14 MB
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