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कर्मप्राभृत विशेषरूप से असत्यमृषावचनयोग द्वीन्द्रिय से लेकर सयोगिकेवली तक होता है। सत्यवचनयोग संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगिकेवली पर्यन्त होता है । मृषावचनयोग एवं सत्यमषावचनयोग संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ तक होता है ।
काययोग सात प्रकार का है : १. औदारिक काययोग, २. औदारिकमिश्रकाययोग, ३. वैक्रियिककाययोग, ४. वैक्रियिकमिश्रकाययोग, ५. आहारककाययोग, ६. आहारकमिश्रकाययोग, ७. कार्मणकाययोग । इनमें से औदारिककाययोग एवं औदारिकमिश्रकाययोग तिर्यञ्चों व मनुष्यों के होता है । वैक्रियिककाययोग एवं वैक्रियिकमिश्रकाययोग देवों व नारकियों के होता है । आहारककाययोग एवं आहारकमिश्रकाययोग ऋद्धिप्राप्त संयतों के होता है। कार्मणकाययोग विग्रहगतिसमापन्न जीवों तथा समुद्घातगत केवलियों के होता है ।
सामान्यतः काययोग तथा विशेषतः औदारिककाययोग एवं औदारिकमिश्रकाययोग एकेन्द्रिय से लेकर सयोगिकेवली तक होता है । वैक्रियिककाययोग एवं वैक्रियिकमिश्रकाययोग संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक होता है। आहारककाययोग एवं आहारकमिश्रकाययोग प्रमत्तसंयत गुणस्थान में ही होता है । कार्मणकाययोग एकेन्द्रिय से लेकर सयोगिकेवली तक होता है। ___ मनोयोग, वचनयोग एवं काययोग संज्ञी मिथ्याद ष्टि से लेकर सयोगिकेवली पर्यन्त होता है । वचनयोग एवं काययोग द्वीन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक होता है । काययोग एकेन्द्रिय जीवों के होता है। इस कथन का तात्पर्य यह है कि एकेन्द्रिय के एक ही योग ( काययोग ) होता है, द्वीन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त दो योग ( काययोग और वचनयोग ) होते हैं, शेष जीवों के तीनों योग होते हैं ।
मनोयोग एवं वचनयोग पर्याप्तकों के ही होता है, अपर्याप्तकों के नहीं । काययोग पर्याप्तकों के भी होते हैं एवं अपर्याप्तकों के भी ।"
छः पर्याप्तियाँ व छः अपर्याप्तियाँ होती हैं। संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक छहों पर्याप्तियाँ होती हैं। द्वीन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक पाँच पर्याप्तियाँ होती हैं एकेन्द्रिय के चार पर्याप्तियाँ होती हैं।
१. सू. ५२-५५. ४. सू. ६५-६७.
२. सू. ५६-६०. ५. सू. ६८-६९.
३. सू. ६१-६४. ६. सू. ७०-७५.
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