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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास और अपर्याप्त । सूक्ष्म भी दो प्रकार के हैं : पर्याप्त और अपर्याप्त । इसी प्रकार द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय एवं चतुरिन्द्रिय भी पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो प्रकार के हैं। पंचेन्द्रिय दो तरह के हैं : संज्ञी और असंज्ञी। संज्ञी और असंज्ञी पुनः पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो-दो प्रकार के हैं।'
एकेन्द्रिय यावत् असंज्ञी पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि नामक प्रथम गुणस्थान में ही होते हैं । असंज्ञी पंचेन्द्रिय ( मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ) से लेकर अयोगिकेवली ( गुणस्थान ) तक पंचेन्द्रिय जीव होते हैं । इससे आगे (सिद्धावस्था में) अनिन्द्रिय जीव हैं। __काय की अपेक्षा से पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, त्रसकायिक और अकायिक जीव हैं । पृथ्वीकायिक, अपकायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक बादर तथा सूक्ष्म के भेद से दो-दो प्रकार के हैं । बादर तथा सूक्ष्म पुनः पर्याप्त एवं अपर्याप्त के भेद से दो-दो प्रकार के हैं । वनस्पतिकायिक दो प्रकार के हैं : प्रत्येकशरीर और साधारणशरीर । प्रत्येकशरीर दो प्रकार के हैं : पर्याप्त और अपर्याप्त । साधारण शरीर दो प्रकार के हैं : बादर और सूक्ष्म । बादर और सूक्ष्म पुनः पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो-दो प्रकार के हैं । त्रसकायिक भी पर्याप्त एवं अपर्याप्त के भेद से दो प्रकार के हैं ।
पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में ही होते हैं । द्वीन्द्रिय से लेकर अयोगिकेवली तक त्रसकायिक होते हैं। बादर एकेन्द्रिय से लेकर अयोगिकेवली पर्यन्त बादरकायिक होते हैं । त्रस और स्थावर-इन दोनों कायों से रहित जीव अकायिक हैं।
योग की अपेक्षा से जीव मनोयोगी, वचनयोगी एवं काययोगी होते हैं। अयोगी जीव भी होते हैं। मनोयोग चार प्रकार का है : १. सत्यमनोयोग, २. मृषामनोयोग, ३. सत्यमृषामनोयोग, ४. असत्यमृषामनोयोग ।
सामान्यतया मनोयोग तथा विशेषतया सत्यमनोयोग एवं असत्यमषामनोयोग संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगिकेवली पर्यन्त होता है । मृषामनोयोग एवं सत्यमृषामनोयोग संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ तक होता है ।
वचनयोग भी चार प्रकार का है : १. सत्यवचनयोग, २. मृषावचनयोग, ३. सत्यमृषावचनयोग, ४. असत्यमृषावचनयोग । सामान्यरूप से वचनयोग तथा १. सू० ३३-३५, २. सू० ३६-३८, ३. सू० ३९-४२. ४. सू० ४३-४६. ___५. सू० ४७-४९. ६. सू० ५०-५१.
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