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________________ कर्मप्राभृत मिथ्यादष्टि एवं असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में नियमतः पर्याप्तक होते हैं । सौधर्म-ईशान से लेकर उपरिम |वेयक के उपरिम भाग तक के विमानवासी देव मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि एवं असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पर्याप्तक भी होते हैं और अपर्याप्तक भी, किन्तु सम्यक-मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में नियमतः पर्याप्तक होते हैं। अनुदिशों एवं विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित व सर्वार्थसिद्धिरूप अनुत्तर विमानों में रहनेवाले देव असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पर्याप्तक भी होते हैं और अपर्याप्तक भी।' वेद की अपेक्षा से स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुसकवेद तथा अपगतवेद वाले जीव होते हैं । स्त्रीवेद और पुरुषवेद वाले जीव असंज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक होते हैं । नपुसकवेद वाले जीव एकेन्द्रिय से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक पाये जाते हैं। इससे आगे जीव अपगतवेद अर्थात् वेदरहित होते हैं। नारको चारों गुणस्थानों में शुद्ध अर्थात् केवल नपुंसकवेदी होते हैं । तिर्यञ्च एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक शुद्ध नपुंसकवेदी होते हैं तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक तीनों वेदों से युक्त होते हैं। मनुष्य मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक तीनों वेदों से युक्त होते हैं तथा आगे वेदरहित होते हैं। देव चारों गुणस्थानों में स्त्रीवेद व पुरुषवेद-इन दो वेदों से युक्त होते हैं। कषाय को अपेक्षा से जीव क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी, लोभकषायी एवं अकषायी ( कषायरहित ) होते हैं। क्रोधकषायी, मानकषायी एवं मायाकषायी एकेन्द्रिय से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक होते हैं। लोभकषायी एकेन्द्रिय से लेकर सूक्ष्म-साम्परायिक-शुद्धि-संयत गुणस्थान तक होते हैं। उपशान्तकषाय वीतराग-छद्मस्थ, क्षीण कषाय-वीतराग-छद्मस्थ, सयोगिकेवली एवं अयोगिकेवली गुणस्थान में अकषायी होते हैं । ज्ञान की अपेक्षा से जीव मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानो, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी एवं केवलज्ञानी होते हैं। मत्यज्ञानी तथा श्रुताज्ञानी एकेन्द्रिय से लेकर सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक होते हैं। १. सू० ९४-१००. ३. सू० १०५-११०. २. सू० १०१-१०४. ४. सू० १११-११४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002097
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, Agam, Karma, Achar, & Philosophy
File Size14 MB
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