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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
निकाचन के लिए नियतविपाकी, संक्रमण के लिए आवापगमन, उपशमन के लिए तनु आदि शब्दों के प्रयोग उपलब्ध होते हैं ।" कर्म और पुनर्जन्म
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कर्म और पुनर्जन्म का अविच्छेद्य सम्बन्ध है । कर्म की सत्ता स्वीकार करने पर उसके फलस्वरूप परलोक अथवा पुनर्जन्म की सत्ता भी स्वीकार करनी ही पड़ती है । जिन कर्मों का फल इस जन्म में प्राप्त नहीं होता उन कर्मों के भोग के लिए पुनर्जन्म मानना अनिवार्य है । पुनर्जन्म एवं पूर्वभव न मानने पर कृत कर्म का निर्हेतुक विनाश - कृतप्रणाश एवं अकृत कर्म का भोग — अकृतकर्मभोग मानना पड़ेगा । ऐसी अवस्था में कर्म व्यवस्था दूषित हो जायेगी । इन्हीं दोषों से बचने के लिए कर्मवादियों को पुनर्जन्म की सत्ता स्वीकार करनी पड़ती है । इसीलिए वैदिक, बौद्ध एवं जैन तीनों प्रकार की भारतीय परम्पराओं में कर्ममूलक पुनर्जन्म की सत्ता स्वीकार की गयी है |
जैन कर्म साहित्य में समस्त संसारी जीवों का समावेश चार गतियों में किया गया है : मनुष्य, तिर्यञ्च, नारक और देव । मृत्यु के पश्चात् प्राणी अपने कर्म के अनुसार इन चार गतियों में से किसी एक गति में जाकर जन्म ग्रहण करता है । जब जीव एक शरीर को छोड़कर दूसरा शरीर धारण करने के लिए जाता है तब आनुपूर्वी नाम कर्म उसे अपने उत्पत्ति-स्थान पर पहुँचा देता है । आनुपूर्वी नाम कर्म के लिए नासा - रज्जु अर्थात् 'नाथ' का दृष्टान्त दिया जाता है । जैसे बैल को इधर-उधर ले जाने के लिए नाथ की सहायता अपेक्षित होती है उसी प्रकार जीव को एक गति से दूसरी गति में पहुँचने के लिए आनुपूर्वो नाम कर्म की मदद की जरूरत पड़ती है । समश्रेणी - ऋजुगति के लिए आनुपूर्वी की आवश्यकता नहीं रहती अपितु विश्रेणी - वक्रगति के लिए रहती है । गत्यन्तर के समय जीव के साथ केवल दो प्रकार का शरीर रहता है तैजस और कार्मण । अन्य प्रकार के शरीर ( औदारिक अथवा वैक्रिय ) का निर्माण वहाँ पहुँचने के बाद प्रारम्भः होता है ।
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१. देखिए - -योगदर्शन तथा योगविंशिका ( पं० सुखलालजी द्वारा सम्पादित), प्रस्तावना, पृ० ५४; Outlines of Indian Philosophy (P. T. Srinivasa Iyengar ), पृ० ६२.
परलोक विषयक मान्यताओं के लिए
२. इन परम्पराओं की पुनर्जन्म एवं देखिए - आत्ममीमांसा, पृ० १३४ - १५२.
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