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कर्मवाद
२५ ७. संक्रमण-एक प्रकार के कर्मपुद्गलों की स्थिति आदि का दूसरे प्रकार के कर्मपुद्गलों की स्थिति आदि में परिवर्तन अथवा परिणमन होना संक्रमण कहलाता है। संक्रमण किसी एक मूल प्रकृति की उत्तरप्रकृतियों में ही होता है, विभिन्न मूल प्रकृतियों में नहीं । दूसरे शब्दों में सजातीय प्रकृतियों में ही संक्रमण माना गया है, विजातीय प्रकृतियों में नहीं। इस नियम के अपवाद के रूप में आचार्यों ने यह भी बताया है कि आयु कर्म की प्रकृतियों में परस्पर संक्रमण नहीं होता और न दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय में तथादर्शनमोहनीय को तीन उत्तरप्रकृतियों में ही ( कुछ अपवादों को छोड़ कर ) परस्पर संक्रमण होता है । इस प्रकार आयु कर्म की चार उत्तरप्रकृतियाँ, दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय व दर्शनमोहनीय को तीन उत्तरप्रकृतियाँ उपर्युक्त नियम के अपवाद हैं।
८. उपशमन-कर्म की जिस अवस्था में उदय अथवा उदीरणा संभव नहीं होती उसे उपशमन कहते हैं । इस अवस्था में उद्वर्तना, अपवर्तना और संक्रमण की संभावना का अभाव नहीं होता। जिस प्रकार राख से आवृत अग्नि उस अवस्था में रहती हुई अपना कार्यविशेष नहीं करती किन्तु आवरण हटते ही पुनः प्रज्वलित होकर अपना कार्य करने को तैयार हो जाती है उसी प्रकार उपशमनअवस्था में रहा हुआ कर्म उस अवस्था के समाप्त होते ही अपना कार्य प्रारम्भ कर देता है अर्थात् उदय में आकर फल प्रदान करना शुरू कर देता है ।
९. निधत्ति-कर्म की वह अवस्था निधत्ति कहलाती है जिसमें उदीरणा और संक्रमण का सर्वथा अभाव रहता है । इस अवस्था में उद्वर्तना और अपवर्तना की असंभावना नहीं होती।
१०. निकाचन-कर्म की उस अवस्था का नाम निकाचन है जिसमें उद्वतंना, अपवर्तना, संक्रमण और उदीरणा ये चारों अवस्थाएँ असम्भव होती हैं। इस अवस्था का अर्थ है कर्म का जिस रूप में बंध हुआ उसी रूप में उसे अनिवार्यतः भोगना। इसी अवस्था का नाम नियति है। इसमें इच्छास्वातन्त्र्य का सर्वथा अभाव रहता है। किसी-किसी कर्म की यही अवस्था होती है।
११. अबाध-कर्म का बँधने के बाद अमुक समय तक किसी प्रकार का फल न देना उसकी अबाध-अवस्था है । इस अवस्था के काल को अबाधकाल कहते हैं। इसपर पहले प्रकाश डाला जा चुका है ।
उदय के लिए अन्य परम्पराओं में प्रारब्ध शब्द का प्रयोग किया गया है। इसी प्रकार सत्ता के लिए संचित, बन्धन के लिए आगामी अथवा क्रियमाण,
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