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________________ द्वितीय प्रकरण कर्मप्राभृत श्वेताम्बर सम्प्रदाय में आचारांगादि ग्रन्थ आगमरूप से मान्य हैं जबकि दिगम्बर सम्प्रदाय में कर्मप्राभूत एवं कषायप्राभूत, को आगमरूप मान्यता प्राप्त है । कर्मप्राभृत को महाकर्मप्रकृतिप्राभृत, आगमसिद्धान्त, षट्खण्डागम, परमागम, खंडसिद्धान्त, षट्खण्डसिद्धान्त आदि नामों से जाना जाता है । कर्मविषयक प्ररूपणा के कारण इसे कमंप्राभृत अथवा महाकर्मप्रकृतिप्राभृत कहा जाता है । आगमिक एवं सैद्धान्तिक ग्रंथ होने के कारण इसे आगमसिद्धान्त, परमागम, खंडसिद्धान्त आदि नाम दिये जाते हैं। चूंकि इसमें छः खण्ड हैं अतः इसे षट्ख ण्डागम अथवा षट्खण्डसिद्धान्त कहा जाता है । कर्मप्राभृत की आगमिक परंपरा : कर्मप्राभूत (षट्खण्डागम )' का उद्गमस्थान दृष्टिवाद नामक बारहवाँ अंग है जो कि अब लुप्त है । दृष्टिवाद के पाँच विभाग हैं : परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका। इनमें से पूर्वगत के चौदह भेद हैं। इन्हीं को चौदहपूर्व कहा जाता है। इनमें से अग्रायणीय नामक द्वितीय पूर्व के आधार से कर्मप्राभृत नामक षट्खण्डागम की रचना की गई। ___ अग्रायणीय पुर्व के निम्नोक्त चौदह अधिकार हैं : १. पूर्वान्त, २. अपरान्त, ३. ध्रुव, ४. अध्रुव, ५. चयनलब्धि, ६. अर्घोपम, ७. प्रणिधिकल्प, ८. अर्थ, ९. भौम, १०. व्रतादिक, ११. सर्वार्थ, १२. कल्पनिर्याण, १३. अतीत सिद्ध -बद्ध, १४. अनागत सिद्ध-बद्ध । इनमें से पंचम अधिकार चयनलब्धि के १. ( अ ) प्रथम पाँच खंड धवला टीका व उसके हिन्दी अनुवाद के साथ सम्पादक : डा० हीरालाल जैन; प्रकाशक : शिताबराय लक्ष्मीचन्द्र, जैन साहित्योद्धारक फंड कार्यालय, अमरावती, सन् १९३९-१९५८ ( आ ) छठा खंड ( महाबन्ध ) हिन्दी अनुवादसहित-सम्पादक : पं० सुमेरुचन्द्र व फूलचन्द्र, प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, सन् १९४७-१९५८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002097
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, Agam, Karma, Achar, & Philosophy
File Size14 MB
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