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विधि-विधान, कल्प, मंत्र, तंत्र, पर्व और तीर्थ
३०९ अनन्तर भूमिशुद्धि, सकलीकरण, वज्रस्वामीरचित और तृतीय पीठ में सूचित वर्धमान विद्याकल्प की देवतावसरविधि, वर्धमानविद्यासम्प्रदाय, द्वितीया और तृतीया वर्धमानविद्या, वर्धमानयंत्र, मंत्र की शुद्धि, प्राक्सेवा, बृहत् वर्धमानविद्या और गौतमवाक्य-इस प्रकार विविध बातें दी गई हैं। इनके अतिरिक्त इस कृति में कतिपय मुद्राओं का भी उल्लेख है।
बृहत् ह्रींकारकल्प : ___ ह्रींकारेण विना यन्त्र' से इस मूल कृति२ का आरम्भ होता हो, ऐसा लगता है। यदि ऐसा न हो तो जिनप्रभसूरिद्वारा रचित विवरण के गद्यात्मक भाग के बाद का यह आद्य पद्य है। प्रारम्भ में इस प्रकार का मंत्र दिया है-“ॐ ह्रीं ऐं त्रैलोक्यमोहिनी चामुण्डा महादेवी सुरवन्दनी ह्रीं ऐं स्वाहा।" इसके पश्चात् पूजाविधि, ध्यानविधि, मायाबीजमंत्र के आराधन की विधि, होम की विधि, मायाबीज के तीन स्तवन, मायाबीजकल्प, हवन की विधि, परमेष्ठिचक्र के विषय में रक्त, पीत इत्यादि मायाबीजसाधनविधि, चोर आदि से रक्षण, वश्ययंत्र की विधि, आकर्षण की विधि, ह्रींकारविधान, ह्रींलेखाकल्प और मायाकल्प-इस प्रकार विविध बातें आती हैं।
टोका-इस मूल कृति के ऊपर जिनप्रभसूरि ने एक विवरण लिखा है। उसमें कुछ भाग संस्कृत में है तो कुछ गुजराती में है । उपर्युक्त विषयों में से मूल के कौन से और विवरण के कौन से, यह स्पष्ट रूप से कहा नहीं जा सकता, क्योंकि मुद्रित पुस्तक में बड़े टाइप में जो पद्य छपे हैं वे ही मूल के हैं या नहीं यह विचारणीय है।
१. 'वर्धमानविद्यापट' के विषय में एक लेख डा० उमाकान्त शाह ने लिखा है
और वह Journal of the Indian Society of Oriental
Arts, Vol. ix में सन् १९४१ में प्रकाशित हुआ है। २. यह कृति या इसका जिनप्रभसूरिकृत विवरण या ये दोनों 'बृहत् ह्रींकार
कल्पविवरणम् तथा ( वाचक चन्द्रसेनोद्धृत ) 'वर्धमानविद्याकल्प' के नाम से जो पुस्तक 'श्रीसूरिमंत्रयंत्रसाहित्यादि ग्रन्थावलि', पुष्प ८-९ छपी है. उसमें देखे जाते हैं । इसका प्रकाशनवर्ष नहीं दिया गया है। २०
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