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विधि-विधान, कल्प, मंत्र, तंत्र, पर्व और तीर्थ
३०७ ___ इस ग्रन्थ के अन्त में गुणरत्नाकरसूरि, जगच्चन्द्रसूरि, श्यामाचार्य, हरिभद्रसूरि एवं हेमचन्द्रसूरि द्वारा रचित भिन्न-भिन्न प्रतिष्ठाकल्पों का आधार लेने का और 'विजयदानसूरि के समक्ष उनसे मिलान कर लेने का उल्लेख है।" प्रतिष्ठासारसंग्रह :
वसुनन्दी ने लगभग ७०० श्लोकों में इसकी रचना की है । यह छः विभागों में विभक्त है। इस कृति का उल्लेख आशाधर ने जिनयज्ञकल्प में किया है।
टीका-इस पर एक स्वोपज्ञवृत्ति है। जिनयज्ञकल्प :
इसकी रचना आशाधर ने वि० सं० १२८५ में की है। इसे प्रतिष्ठाकल्प या प्रतिष्ठासारोद्धार भी कहते हैं। इसमें वसुनन्दी की इसी विषय की प्रतिष्ठासारसंग्रह नाम की कृति का उल्लेख है । रत्नत्रयविधान :
यह भी आशाघर की कृति है। इसे 'रत्नत्रयविधि' भी कहते हैं। इसका उल्लेख आशाधर ने धर्मामृत की प्रशस्ति में किया है । सूरिमंत्र :
इसके सम्बन्ध में विधिमार्गप्रपा (पृ० ६७) में कहा है कि यह सूरिमंत्र महावीरस्वामी ने गौतमस्वामी को २१०० अक्षर-परिमाण कहा था और उन्होंने (गौतमस्वामी ने) उसे ३२ श्लोकों में गूंथा था। यह धीरे-धीरे घटता जाता है और दुःप्रसह मुनि के समय में ढाई श्लोक-परिमाण रहेगा।
इस मंत्र में पाँच पीठ है : १. विद्यापीठ, २. महाविद्या-सौभाग्यपीठ, ३. उपविद्या-लक्ष्मीपीठ, ४. मंत्रयोग-राजपीठ और ५. सुमेरुपीठ । १. मूल कृति का किसी ने गुजराती में अनुवाद किया है। सोमचन्द हरगोविन्द
दास और छबीलदास केसरीचन्द संघवी इस मूल कृति के संयोजक एवं प्रकाशक हैं । इन्होंने यह गुजराती अनुवाद वि० सं० २०१२ में प्रकाशित किया है। उसमें जिनभद्रा, परमेष्ठिमुद्रा इत्यादि उन्नीस मुद्राओं के चित्र दिये गये हैं। पहली पट्टिका के ऊपर च्यवन एवं जन्मकल्याणकों का एक-एक चित्र है और दूसरी के ऊपर केवलज्ञान-कल्याणक तथा अंजन
क्रिया का एक-एक चित्र है। २. यह कृति श्री मनोहर शास्त्री ने वि० सं० १९७४ में प्रकाशित की है। ३. यह प्रकाशित है (देखिए-आगे की टिप्पणी)।
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