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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास १६४४ ), वासुपूज्यजिन-पुण्यप्रकाशरास (वि० सं० १६७१ ), वीरजिन हमचडी, वीरहुण्डीस्तवन, सत्तरभेदी-पूजा, साधुकल्पलता ( वि० सं० १६८२ ) और हीरविजयसूरिदेशनासुरवेलि (वि० सं० १६९२ ) ग्रन्थों की रचना की है।
इस प्रतिष्ठाकल्प के प्रारम्भ में जिनबिम्ब की प्रतिष्ठा और पूजाविधि कहने की प्रतिज्ञा की है । इसके अनन्तर अधोलिखित विषय इसमें आते हैं :
प्रतिष्ठा करनेवाले श्रावक का लक्षण, प्रतिष्ठा करने वाले आचार्य का लक्षण, स्नात्र के प्रकार, मण्डप का स्वरूप, भूमि का शोधन, वेदिका, दातुन इत्यादि के मंत्र, पहले दिन की विधि-जलयात्रा, कुम्भस्थापन की विधि; दूसरे दिन की विधि-नन्द्यावर्त का पूजन; तीसरे दिन की विधि-क्षेत्रपाल, दिक्पाल, भैरव, सोलह विद्यादेवी और नौ ग्रहों का पूजन; चौथे दिन की विधि-सिद्धचक्र का पजनः पाँचवें दिन की विधि-बीस स्थानक का पूजन; छठे दिन की विधिच्यवनकल्याणक की विधि, इन्द्र और इन्द्राणी का स्थापन, गुरु का पूजन, च्यवनमंत्र, प्राणप्रतिष्ठा; सातवें दिन की विधि-जन्मकल्याणक की विधि, शचीकरण, सकलीकरण, दिक्कुमारियां, इन्द्र एवं इन्द्राणियों का उत्सव; आठवें दिन की विधि-अठारह अभिषेक और अठारह स्नात्र; नवें दिन की विधिलेखनशाला की विधि, विवाह एवं दीक्षा का महोत्सव; दसवें दिन को विधिकेवलज्ञान-कल्याणक, अंजनविधि, निर्वाणकल्याणक, जिनबिम्ब की स्थापना और दृष्टि, सकलीकरण, शुचिविधि, बलि-विषयक मंत्र, संक्षिप्त प्रतिष्ठाविधि, जिनबिम्ब के परिकर, कलश के आरोपण और ध्वजारोपण की विधि, ध्वजादि-विषयक मंत्र, ध्वजादि का परिमाण और चौतीस का यंत्र । -१. यह यंत्र इस प्रकार है :
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