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कर्मवाद
१७.
बोध होने का नाम अवधिदर्शन है । इस प्रकार के दर्शन को आवृत करने वाला कम अवधिदर्शनावरण कहलाता है । संसार के अखिल त्रैकालिक पदार्थों का सामान्यावबोध केवलदर्शन कहलाता है । इस प्रकार के दर्शन का आवरण करने वाला कर्म केवलदर्शनावरण के नाम से प्रसिद्ध है । निद्रा आदि अंतिम पाँच प्रकृतियाँ भी दर्शनावरणीय कर्म का ही कार्य है । सोया हुआ जो प्राणी थोड़ी-सी आवाज से जग जाता है अर्थात् जिसे जगाने में परिश्रम नहीं करना पड़ता उसकी नींद को निद्रा कहते हैं । जिस कर्म के उदय से इस प्रकार की नींद आती है उस कर्म का नाम भी निद्रा है । जो सोया हुआ प्राणी बड़े जोर से चिल्लाने, हाथ से जोर से हिलाने आदि से बड़ी मुश्किल से जगता है उसकी नींद एवं तन्निमित्तक कर्म दोनों को निद्रानिद्रा कहते हैं । खड़े-खड़े बैठे-बैठे नींद लेने का नाम प्रचला है । उसका हेतुभूत कर्म भी प्रचला कहलाता है । चलते-फिरते नींद लेने का नाम प्रचलाप्रचला है । तन्निमित्तभूत कर्म को भी प्रचलाप्रचला कहते हैं । दिन में अथवा रात में सोचे हुए कार्यविशेष को निद्रावस्था में सम्पन्न करने का नाम स्त्यानद्धि - स्त्यानगृद्धि है । जिस कर्म के उदय से इस प्रकार की नींद आती है उसका नाम भी स्त्यानद्धि अथवा स्त्यानगृद्धि है ।
वेदनीय अथवा वेद्य कर्म की दो उत्तरप्रकृतियाँ हैं : साता और असाता । जिस कर्म के उदय से प्राणी को अनुकूल विषयों की प्राप्ति से सुख का अनुभव होता है उसे सातावेदनीय कर्म कहते हैं । जिस कर्म के उदय से प्रतिकूल विषयों की प्राप्ति होने पर दुःख का संवेदन होता है उसे असातावेदनीय कर्म कहते हैं । आत्मा को विषयनिरपेक्ष स्वरूप सुख का संवेदन किसी भी कर्म के उदय की अपेक्षा न रखते हुए स्वतः होता है । इस प्रकार का विशुद्ध सुख आत्मा का निजी धर्म है । वह साधारण सुख की कोटि से ऊपर है ।
मोहनीय कर्म की मुख्य दो उत्तर - प्रकृतियाँ हैं : दर्शनमोह अर्थात् दर्शन का घात और चारित्रमोह अर्थात् चारित्र का घात । जो पदार्थ जैसा है उसे वैसा ही समझने का नाम दर्शन है । यह तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप आत्मगुण है । इस गुण का घात करनेवाले कर्म का नाम दर्शनमोहनीय है । जिसके द्वारा आत्मा अपने यथार्थ स्वरूप को प्राप्त करता है उसे चारित्र कहते हैं । चारित्र का घात करनेवाला कर्म चारित्रमोहनीय कहलाता है | दर्शनमोहनीय कर्म के पुनः तीन भेद हैं : सम्यक्त्वमोहनीय, मिथ्यात्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय । सम्यक्त्वमोहनीय के दलिक - कर्मपरमाणु शुद्ध होते हैं । यह कर्म शुद्ध--- स्वच्छ परमाणुओं वाला होने के कारण तत्त्वरुचिरूप सम्यक्त्व में बाधा नहीं पहुँचाता किन्तु इसके उदय से आत्मा को स्वाभाविक सम्यक्त्व - कर्मनिरपेक्ष सम्यक्त्व - क्षायिकसम्यक्त्व
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