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________________ ट जैन साहित्य का बृहद् इतिहास आत्मा के चार मूल गुणों (ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य) का घात होता है । शेष चार अघाती प्रकृतियाँ हैं क्योंकि ये आत्मा के किसी गुण का घात नहीं करतीं। इतना ही नहीं, ये आत्मा को ऐसा रूप प्रदान करती हैं जो उसका निजी नहीं अपितु पौद्गलिक-भौतिक है। ज्ञानावरण आत्मा के ज्ञानगुण का घात करता है । दर्शनावरण से आत्मा के दर्शनगुण का घात होता है । मोहनीय सुख-आत्मसुख-परमसुख-शाश्वतसुख के लिये घातक है । अन्तराय से वीर्य अर्थात् शक्ति का घात होता है। वेदनीय अनुकूल एवं प्रतिकूल संवेदन अर्थात् सुख-दुःख का कारण है। आयु से आत्मा को नारकादि विविध भवों की प्राप्ति होती है । नाम के कारण जीव को विविध गति, जाति, शरीर आदि प्राप्त होते हैं । गोत्र प्राणियों के उच्चत्व-नीचत्व का कारण है । ज्ञानावरणीय कर्म की पाँच उत्तर-प्रकृतियाँ हैं : १. मतिज्ञानावरण, २. श्रुतज्ञानावरण, ३. अवधिज्ञानावरण, ४. मनःपर्यय, मनःपर्यव अथवा मनःपर्यायज्ञानावरण और ५. केवलज्ञानावरण । मतिज्ञानावरणीय कर्म मतिज्ञान अर्थात् इन्द्रिय और मन से उत्पन्न होने वाले ज्ञान को आच्छादित करता है । श्रुतज्ञानावरणीय कर्म श्रुतज्ञान अर्थात् शास्त्रों अथवा शब्दों के पठन तथा श्रवण से होनेवाले अर्थज्ञान का निरोध करता है। अवधिज्ञानावरणीय कर्म अवधिज्ञान अर्थात् इन्द्रिय तथा मन की सहायता के बिना होनेवाले रूपी द्रव्यों के ज्ञान को आवृत करता है। मनःपर्यायज्ञानावरणीय कर्म मनःपर्यायज्ञान अर्थात् इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना संज्ञी-समनस्क-मन वाले जीवों के मनोगत भावों को जानने वाले ज्ञान को आच्छादित करता है। केवलज्ञानावरणीय कर्म केवलज्ञान अर्थात् लोक के अतीत, वर्तमान एवं अनागत समस्त पदार्थों को युगपत्एक साथ जानने वाले ज्ञान को आवृत करता है। दर्शनावरणीय कर्म की नौ उत्तर-प्रकृतियां हैं : १. चक्षुर्दर्शनावरण,२. अचक्षुदर्शनावरण, ३. अवधिदर्शनावरण, ४. केवलदर्शनावरण, ५. निद्रा, ६. निद्रानिद्रा, ७. प्रचला, ८. प्रचलाप्रचला और ९. स्त्यानद्धि-स्त्यानगृद्धि । आँख के द्वारा पदार्थों के सामान्य धर्म के ग्रहण को चक्षुर्दर्शन कहते हैं । इसमें पदार्थ का साधारण आभासमात्र होता है । चक्षुर्दर्शन को आवृत करने वाला कर्म चक्षुदर्शनावरण कहलाता है। आँख को छोड़ कर अन्य इन्द्रियों तथा मन से जो पदार्थों का सामान्य प्रतिभास होता है उसे अचक्षुर्दर्शन कहते हैं । इस प्रकार के दर्शन का आवरण करने वाला कर्म अचक्षुर्दर्शनावरण कहलाता है। इन्द्रिय और मन की सहायता की अपेक्षा न रखते हुए आत्मा द्वारा रूपी पदार्थों का सामान्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002097
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, Agam, Karma, Achar, & Philosophy
File Size14 MB
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