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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
नहीं होने पाता । परिणामतः उसे सूक्ष्म पदार्थों के चिन्तन में शंकाएं हुआ करती हैं। मिथ्यात्वमोहनीय के दलिक अशुद्ध होते हैं। इस कर्म के उदय से प्राणी 'हित को अहित समझता है और अहित को हित । विपरीत बुद्धि के कारण उसे तत्त्व का यथार्थ बोध नहीं होने पाता। मिश्रमोहनीय के दलिक अर्धविशुद्ध होते हैं। इस कर्म के उदय से जीव को न तो तत्त्वरुचि होती है, न अतत्त्वरुचि । इसका दूसरा नाम सम्यक्-मिथ्यात्वमोहनीय है। यह सम्यक्त्वमोहनीय और मिथ्यात्वमोहनीय का मिश्रितरूप है जो तत्त्वार्थ श्रद्धान और अतत्त्वार्थ-श्रद्धान इन दोनों अवस्थाओं में से शुद्ध रूप से किसी भी अवस्था को प्राप्त नहीं करने देता। मोहनीय के दूसरे मुख्य भेद चारित्रमोहनीय के दो भेद हैं : कषायमोहनीय और नोकषायमोहनीय । कषाय'मोहनीय मुख्यरूप से चार प्रकार का है : क्रोध, मान, माया और लोभ । क्रोधादि चारों कषाय तीव्रता-मन्दता की दृष्टि से पुनः चार-चार प्रकार के हैं : अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन । इस प्रकार कषायमोहनीय कर्म के कुल सोलह भेद हुए जिनके उदय से प्राणी में क्रोधादि कषाय उत्पन्न होते हैं । अनन्तानुबन्धी क्रोधादि के प्रभाव से जीव अनन्तकाल तक संसार में भ्रमण करता है। यह कषाय सम्यक्त्व का घात करता है। अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से देशविरतिरूप श्रावकधर्म की प्राप्ति नहीं होने पाती। इसकी अवधि एक वर्ष है। प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से सर्वविरतिरूप श्रमणधर्म की प्राप्ति नहीं होने पाती । इसकी स्थिति चार महीने की है। संज्वलन कषाय के प्रभाव से श्रमण यथाख्यातचारित्ररूप सर्वविरति प्राप्त नहीं कर सकता। यह एक पक्ष की स्थिति वाला है । उपर्युक्त कालमर्यादाएं साधारण दृष्टि-व्यवहार नय से हैं। इनमें यथासंभव परिवर्तन भी हो सकता है। कषायों के उदय के साथ जिनका उदय होता है अथवा जो कषायों को उत्तेजित करते हैं उन्हें नोकषाय कहते हैं ।' नोकषाय के नौ भेद हैं : १. हास्य, २. रति, ३. अरति, ४. शोक, ५. भय, ६. जुगुप्सा, ७. स्त्रीवेद, ८. पुरुषवेद और ९. नपुंसकवेद । स्त्रीवेद के उदय से स्त्री को पुरुष के साथ संभोग करने की इच्छा होती है। पुरुषवेद के उदय से पुरुष को स्त्री के साथ संभोग करने की इच्छा होती है। नपुंसकवेद के उदय से स्त्री और पुरुष दोनों के साथ संभोग करने की कामना होती है। यह वेद
१. कषायसहवर्तित्वात्, कषायप्रेरणादपि ।
हास्यादिनवकस्योक्ता, नोकषायकषायता ।।
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