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विधि-विधान, कल्प, मंत्र, तंत्र, पर्व और तीर्थ
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प्रारम्भ में प्रत्याख्यान के पर्याय दिये गये हैं। इसमें अद्धा-प्रत्याख्यान का विस्तृत निरूपण है । इसमें १. प्रत्याख्यान लेने की विधि, २. तद्विषयक विशुद्धि, ३. सूत्र की विचारणा, ४. प्रत्याख्यान के पारने की विधि, ५. स्वयं पालन और ६. प्रत्याख्यान का फल-ये छः बातें अनुक्रम से उपस्थित की गई हैं। इस प्रकार इसमें छः द्वारों का वर्णन आता है। तीसरे द्वार में नमस्कार सहित पौरुषी, पुरिमाध, एकाशन, एकस्थान, आचाम्ल, अभक्तार्थ, चरम, देशावकाशिक, अभिग्रह और विकृति-इन दस का अर्थ समझाया है । बीच-बीच में नमस्कारसहित प्रत्याख्यान के दूसरे सूत्र भी दिये गये हैं । इसके अतिरिक्त दान एवं प्रत्याख्यान के फल के विषय में दृष्टान्त भी आते हैं।
३२८ वीं गाथा में आये हुए निर्देश के अनुसार प्रस्तुत कृति की रचना आवश्यक, पंचाशक और पणवत्थु (पंचवत्थुग ) के विवरण के आधार पर की गई है।
टीका-इस पर ५५० पद्यों की एक अज्ञातकर्तृक वृत्ति है । संघपट्टक :
जिनवल्लभगणी ने विविध छन्दों के ४० पद्यों में इसकी रचना की है। इसमें उन्होंने नीति एवं सदाचार के विषय में निरूपण किया है । यह चित्तौड़ के महावीर जिनालय के एक स्तम्भ पर खुदवाया गया है। इसका ३८ वाँ पद्य षडरचक्रबन्ध से विभूषित है।
टोकाएं-जिनपतिसूरि ने इस पर ३६०० श्लोक-परिमाण एक बृहट्टीका लिखी है । इस टीका के आधार पर हंसराजगणी ने एक टीका लिखी है । लक्ष्मीसेन ने वि० सं० १३३३ में ५०० श्लोक-परिमाण एक लघुटीका लिखी है। ये हम्मीर के पुत्र थे। इसके अतिरिक्त साधुकीर्ति ने भी इस पर एक टीका लिखी है।
इस पर तीन वृत्तियाँ भी उपलब्ध हैं, जिनमें से एक के कर्ता जिनवल्लभगणी के शिष्य और दूसरी के विवेकरत्नसूरि हैं। तीसरी अज्ञातकर्तृक है । देवराज ने वि० सं० १७१५ में इस पर एक पंजिका भी लिखी है।
१. यह कृति 'अपभ्रंश काव्यत्रयी' के परिशिष्ट के रूप में सन् १९२७ में छपी
है। इससे पहले जिनपतिसूरि की बृहट्टीका एवं किसी के गुजराती अनुवाद के साथ बालाभाई छगनलाल ने सन् १९०७ में यह छपवाई है।
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