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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
५. आचार्य भक्ति - इसमें आचार्य के गुणों का वर्णन है ।
६. पंचगुरुभक्ति — इसमें पाँच परमेष्ठियों की रूपरेखा का आलेखन है । तीर्थंकरभक्ति - इसमें ऋषभ आदि चौबीस तीर्थंकरों के नाम
७.
आते हैं ।
८. निर्वाणभक्ति — इसमें महावीरस्वामी के पाँच कल्याणकों का वर्णन है ।
९. शान्तिभक्ति - इसमें शान्तिप्राप्ति, प्रभुस्तुति का फल, शान्तिनाथ को वन्दन, आठि प्रातिहार्यों के नाम इत्यादि बातें वर्णित हैं ।
१०. समाधिभक्ति - इसमें सर्वज्ञ के दर्शन, संन्यासपूर्वक मृत्यु एवं परमात्मा की भक्ति की इच्छा के विषय में उल्लेख है ।
११. नन्दीश्वरभक्ति - इसमें त्रैलोक्य के चैत्यालयों एवं नन्दीश्वर द्वीप के विषय में जानकारी दी गई है ।
१२. चैत्यभक्ति - इसमें विविध जिन चैत्यालयों और प्रतिमाओं का कीर्तन एवं जिनेश्वर को महानद की दी गई सांगोपांग उपमा इत्यादि बातें आती हैं । आवश्यकसप्तति :
इसे पाक्षिक-सप्तति भी कहते हैं । यह मुनिचन्द्रसूरि की रचना है । सुखप्रबोधिनी :
यह वादी देवसूरि के शिष्य महेश्वरसूरि ने लिखी । इस कार्य में उन्हें वज्रसेनगणी ने सहायता की थी ।
सम्मत्तुपायविहि (सम्यक्त्वोत्पादनविधि ) :
यह कृति मुनिचन्द्रसूरि ने जैन महाराष्ट्री के २९५ पद्यों में लिखी है। इसकी एक भी हस्तलिखित प्रति का उल्लेख जिनरत्नकोश में नहीं है ।
पच्चक्खाणसरूव (प्रत्याख्यानस्वरूप ) :
३२९ गाथाओं' की इस कृति की रचना यशोदेवसूरि ने जैन महाराष्ट्री में वि० सं० १९८२ में की है । ये वीरगणी के शिष्य चन्द्रसूरि के शिष्य थे । इसमें
१. जिनरत्नकोश ( वि० १, पृ० २६३ ) में जो ३६० गाथाओं का उल्लेख है वह भ्रान्त प्रतीत होता है ।
२. चार सौ श्लोक-परिमाण यह कृति विसेसणवई ( विशेषणवती ) तथा बीस केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था ने सन् १९२७ में प्रकाशित की है ।
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सारस्वतविभ्रम, दानषट्त्रिशिका विशिकाओं के साथ ऋषभदेवजी
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