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________________ २८४ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास आराहणासार (आराधनासार ) : विः सं. ९९० के आसपास में देवसेन ने जैन शौरसेनी के ११५ पद्यों में इसकी रचना की है। ये विमलसेन के शिष्य थे ऐसा गजाधरलाल जैन ने प्रस्तावना ( पृ० २) में लिखा है । देवसेन नाम के दूसरे भी अनेक ग्रन्थकार हुए हैं। उदाहरणार्थ-आलापपद्धति के कर्ता, चन्दनषष्टयुद्यापन के कर्ता, सुलोचना-चरित्र के कर्ता और संस्कृत में आराधनासार के रचयिता। इसकी प्रथम गाथा में आये हुए 'सुरसेणवंदियं' के भिन्न-भिन्न पदच्छेद करके भिन्न-भिन्न अर्थ किये गये हैं । ऐसा करते समय 'रस' और 'दिय' (द्विज) के भिन्न-भिन्न अर्थ किये हैं। इसमें तपश्चर्या, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र के समुदाय को आराधना का सार कहा है । यह सार व्यवहार एवं निश्चय से दो प्रकार का है । व्यवहार से सम्यग्दर्शन आदि का स्वरूप, सम्यक्चारित्र के तेरह प्रकारों का तथा तपश्चर्या के बारह प्रकारों का सामान्य निर्देश, शुद्ध निश्चयनय के अनुसार आराधना की स्पष्टता, व्यवहार से चतुर्विध आराधना का निश्चयनयपूर्वक की आराधना के साथ कार्य-कारणभाव सम्बन्ध, विशुद्ध आत्मा की आराधना करने का उपदेश, आराधक और विराधक का स्वरूप, संन्यास की योग्यता, परिग्रह के त्याग से लाभ, निश्चयनय की अपेक्षा से निर्ग्रन्थता, कषायों और परीषहों पर विजय, ( दावानलरूपी) अचेतनकृत उपसर्ग शिवभूति ने, तिथंचकृत उपसर्ग सुकुमाल और कोसल इन दो मुनियों ने, मनुष्यकृत उपसर्ग गुरुदत्त राजा ने, पाण्डवों ने और गजकुमार ने तथा देवकृत उपसर्ग श्रीदत्त और सुवर्णभद्र ने सहन किये थे इसका उल्लेख, इन्द्रिय एवं मन का निग्रह करने की आवश्यकता, असंयमी को अवदशा, निर्विकल्प समाधि का स्वरूप, सम्यग्दर्शन आदि की आत्मा से अभिन्नता और वैसी आत्मा अवलम्बन आदि ( विभाव परिणामों ) से रहित होने से उसकी कथंचित् शून्यता, उत्तम ध्यान का प्रभाव, विशुद्ध भावनाओं का फल, चतुर्विध आराधना का फल, आराधना का स्वरूप प्रदर्शित करनेवाले मुनिवरों को वन्दन तथा प्रणेता की लघुता-ये विषय आते हैं । १. यह रत्नकोति की टीका के साथ माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला में वि० सं० १९७३ प्रकाशित हुआ है। मूल ग्रन्थ गजाधरलाल जैनकृत हिन्दी अनुवाद के साथ वीर संवत् २४८४ में 'श्री शान्तिसागर जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था ने छपवाया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002097
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, Agam, Karma, Achar, & Philosophy
File Size14 MB
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