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अनगार और सागार का आचार
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चना के गुण-दोष, २५. शय्या, २६. संस्तर, २७. निर्यापक, २८. प्रकाशन, २९. आहार की हानि, ३०. प्रत्याख्यान, ३१. क्षामण, ३२. क्षपण, ३३. अनुशिष्टि, ३४. सारण, ३५. कवच, ३६. समता, ३७. ध्यान, ३८. लेश्या, ३९. आराधना का फल और ४०. विजहना ।
चालीसवें अधिकार में निशीथिका का स्वरूप, उसके द्वार, निमित्तज्ञान, साधु के मरण के समय धीर-वीर का जागरण, मृतक मुनि के अंगूठे का बन्धन
और छेदन, वन आदि में मृत्युप्राप्त मुनि के कलेवर का वहाँ पड़ा रहना उचित न होने से गृहस्थ का उसे शिविका में लाना, क्षपक के शरीर-स्थापन की विधि, क्षपक के शरीर के अवयवों का पक्षियों द्वारा अपहरण किये जाने पर फलादेश एवं क्षपक की गति का कथन है ।
इस ग्रन्थ के रचयिता 'पाणितलभोजी' शिवार्य हैं। इन्होंने अपने गुरुओं के रूप में जिननंदी, सर्वगुप्त और मित्रनन्दी इन तीनों का 'आर्य' शब्द के साथ उल्लेख किया है।
- आरधना की कई गाथाएँ मूलाचार में तथा किसी-किसी श्वेताम्बर ग्रन्थ में भी उपलब्ध होती हैं। इसका 'विजहना' नाम का चालीसवाँ अधिकार विलक्षण है । उसमें आराधक मुनि के मृतक-संस्कार का वर्णन है।
___टोकाएं-इस पर एक टीका है, जिसे कई लोग वसुनन्दी की रचना मानते है। इसके अतिरिक्त इस पर चन्द्रनन्दी के शिष्य बलदेव के शिष्य अपराजित की 'विजयोदया' नाम की एक टीका है। आशाधर की टीका का नाम 'दर्पण' है। इसे 'मूलाराधनादर्पण' भी कहते हैं। अमितगति की टीका का नाम 'मरणकरण्डिका' है। इन टीकाओं के अतिरिक्त इस पर एक अज्ञातकर्तृक पंजिका भी है।
१, जिनसेन ने आदिपुराण में जिन शिवकोटि का उल्लेख किया है वे प्रस्तुत __ग्रन्थकार ही हैं यह शंकास्पद है। २. जिनदास पार्श्वनाथ ने इसका हिन्दी में अनुवाद किया है। सदासुख का
भी एक अनुवाद है। उनका हिन्दी-वचनिका नाम का यह अनुवाद वि. सं. १९०८ में पूर्ण हुआ था।
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