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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास इसकी पहली गाथा में वन्दनीय को वन्दन करके चैत्यवन्दन आदि का निरूपण वृत्ति, भाष्य, चूणि इत्यादि के आधार पर करने की प्रतिज्ञा की गई है। इसके पश्चात् चैत्यवन्दन अर्थात् देववन्दन की विधि का पालन चौबीस द्वार से यथावत् होने से चौबीस द्वार के नाम प्रत्येक द्वार के प्रकारों की संख्या के साथ दिये गये हैं। वे द्वार इस प्रकार हैं :
१. नैषध आदि दर्शनत्रिक, २. पाँच अभिगम, ३. देव को वन्दन करते समय स्त्री एवं पुरुष के लिए खड़े होने की दिशा, ४. तीन अवग्रह, ५. विविध वन्दन, ६. पंचांग प्रणिपात, ७. नमस्कार, ८-९०. नवकार आदि नौ सूत्रों के वर्ण की संख्या तथा उन सूत्रों के पदों एवं सम्पदा की संख्या, ११. 'नमु त्थु णं' आदि पांच दण्डक, १२. देववन्दन के बारह अधिकार, १३. चार वन्दनीय, १४. उपद्रव दूर करने के लिए समग्दृष्टि देवों का स्मरण, १५. नाम-जिन, स्थापना-जिन, द्रव्य-जिन और भाव-जिन, १६. चार स्तुति, १७. आठ निमित्त, १८. देववन्दन के बारह हेतु, १९. कायोत्सर्ग के सोलह आकार, २०. कायोत्सर्ग के उन्नीस दोष, २१. कायोत्सर्ग का प्रमाण, २२. स्तवनसम्बन्धी विचार, २३. सात बार चैत्यवन्दन और २४. दस आशातना ।
इन चौबीस द्वारों के २०७४ प्रकार गिनाकर ६२ वीं गाथा में देववन्दन की विधि दी गयीहै। संघाचारविधि : ___ यह ग्रन्थ उपयुक्त देवेन्द्रसूरि के शिष्य धर्मघोषसूरि ने वि० सं० १३२७ से पहले लिखा है । यह ८५०० श्लोक-परिमाण रचना है और सम्भवतः स्वयं धर्मघोषसरि की लिखी हुई वि० सं० १३२९ की हस्तलिखित प्रति मिलती है । यह संघाचारविधि चेइयवन्दणसुत्त की वृत्ति है । इसमें लगभग पचास कथाएँ, देव और गुरु की स्तुतियाँ, विविध देशनाएँ. सुभाषित, मतान्तर और उनका खण्डन इत्यादि आते हैं। सावगविहि (श्रावकविधि ) :
यह जिनप्रभसूरि की दोहा-छन्द में अपभ्रंश में ३२ पद्यों में रचित कृति है । इसका उल्लेख पत्तन-सूची में आता है। गुरुवंदणभास (गुरुवन्दनभाष्य )
चेइयवंदणभास इत्यादि के प्रणेता देवेन्द्रसूरि की जैन महाराष्ट्री में रचित ४१
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