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अनगार और सागार का आचार
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पद्यों की यह कृति ' है । प्रथम गाथा में गुरुवन्दन के तीन प्रकार ---1 - फिट्टा ( स्फेटिका ), छोभ ( स्तोभ ) और बारसावर्त ( द्वादशावर्त ) कहे हैं । इसके बाद वन्दन का हेतु, वन्दन के पाँच नाम तथा वन्दन के बाईस द्वार — इस तरह विविध विषयों का निरूपण किया गया है। बाईस द्वार इस प्रकार हैं :
१. वन्दन के पाँच नाम, २. वन्दन के बारे में पांच उदाहरण, ३. पार्श्वस्थ आदि अवन्दनीय, ४. आचार्य आदि वन्दनीय, ५-६ वन्दन के चार अदाता और चार दाता, ७. निषेध के तेरह स्थानक, ८. अनिषेध के चार स्थानक, ९. वन्दन के कारण, १०. आवश्यक, ११. मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन, १२. शरीर का प्रतिलेखन, १३. वन्दन के बत्तीस दोष, १४. वन्दन के चार गुण, १५. गुरु की स्थापना, १६. अवग्रह, १७-१८. 'वंदणयसुत्त' के अक्षरों एवं पदों की संख्या, १९. स्थानक, २०. वन्दन में गुरुवचन, २१. गुरु की तैंतीस आशातना और २२. वन्दन की विधि ।
पंच्चक्खाणभास ( प्रत्याख्यानभाष्य ) :
यह 'चेइयवन्दणभास' आदि के रचयिता देवेन्द्रसूरि की जैन महाराष्ट्री में ग्रथित ४८ गाथाओं की कृति है । इसमें प्रत्याख्यान के दस प्रकार, प्रत्याख्यान की चार विधि, चतुविध आहार, बाईस आकार, अद्विरुक्त, दस विकृति, तीस विकृतिगत ( छ: मूल विकृति के तीस निर्विकृतिक ), प्रत्याख्यान के मूल गुण और उत्तर गुण ऐसे दो प्रकार, प्रत्याख्यान की छः शुद्धि और प्रत्याख्यान का फलइस प्रकार नौ द्वारों का सविस्तर निरूपण है ।
मूलसुद्धि ( मूलशुद्धि ) :
इसे सिद्धान्तसार तथा स्थानकसूत्र भी कहते हैं । जैन महाराष्ट्री के २५२ पद्यों में रचित इस कृति के प्रणेता प्रद्युम्नसूरि हैं । इसकी एक हस्तलिखित प्रति वि. सं. १९८६ की मिली है । इसमें सम्यक्त्वगुण के विषय में विवरण है ।
१. चेइयवंदणभास तथा गुरुवंदणभास के साथ प्रस्तुत कृति 'चैत्यवन्दनादि - भाष्यत्रयम्' में गुजराती अनुवाद के साथ सन् १९०६ में छपी है । प्रकाशक है : यशोविजय जैन संस्कृत पाठशाला ।
२. वन्दन, चितिकर्म, कृतिकर्म, पूजाकर्म और विनयकर्म ।
३. इसका किसी ने गुजराती में अनुवाद किया है और वह प्रकाशित भी हुआ है।
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