SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 294
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनगार और सागार का आचार २७९ साधु एवं दीनजन की यथायोग्य सेवा, २०. सर्वदा कदाग्रह से मुक्ति, २१. गुण में पक्षपात, २२. प्रतिसिद्ध देश एवं काल की क्रिया का त्याग, २३. स्वबलाबल का परामर्श, २४. व्रतधारी और ज्ञानवृद्धजनों की पूजा, २५ पोष्यजनों का यथायोग्य पोषण, २६. दीर्घदशिता, २७. विशेषज्ञता अर्थात् अच्छे-बुरे का विवेक, २८. कृतज्ञता, २९. लोकप्रियता, ३०. लज्जालुता, ३१. कृपालुता, ३२. सौम्य आकार, ३३. परोपकार करने में तत्परता, ३४ अन्तरंग छः शत्रुओं के परिहार के लिए उद्युक्तता और ३५. जितेन्द्रियता । धर्मरत्नकरण्डक : ९५०० श्लोक - परिमाण यह कृति ' अभयदेवसूरि के शिष्य वर्धमानसूरि ने वि० सं० १९७२ में लिखी है । टीका- इस पर स्वयं कर्ता ने वि० सं० १९७२ में वृत्ति लिखी है । इसका संशोधन अशोकचन्द्र, धनेश्वर, नेमिचन्द्र और पार्श्वचन्द्र इस प्रकार चार मुनियों ने किया है । चेइअवंदणभास (चैत्यवन्दनभाष्य ) : देवेन्द्रसूरि ने जैन महाराष्ट्री में ६३ पद्य में इसकी रचना की है । ये `तपागच्छ के स्थापक जगच्चन्द्रसूरि के पट्टधर शिष्य थे । इन्होंने कम्मविवाग (कर्मविपाक) आदि पांच नव्य कर्मप्रन्थ एवं उनकी टीका, गुरुवंदणभास एवं पच्चक्खाणभास, दाणाइकुलय, सुदंसणाचरिय तथा सड्ढदिणकिच्च और उसकी टीका आदि लिखे हैं । व्याख्यानकला में ये सिद्धहस्त थे । इनका स्वर्गवास वि० सं० १३२७ में हुआ था । १. यह हीरालाल हंसराज ने दो भागों में सन् १९१५ में छपवाया है । २. यह अनेक स्थानों से गुजराती अनुवाद के साथ प्रकाशित हुआ है । 'संघाचारविधि' के साथ ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था ने सन् १९३८ में यह प्रकाशित किया है । इसके सम्पादक श्री आनन्दसागरसूरि ने प्रारम्भ में मूल कृति देकर बाद में संघाचारविधि का संक्षिप्त एवं 'विस्तृत विषयानुक्रम संस्कृत में दिया है। इसके बाद कथाओं की सूची, स्तुति स्थान, स्तुति संग्रह, देशना - स्थान, देशना - संग्रह, सूक्तियों के प्रतीक, साक्षीरूप ग्रन्थों की नामावली, साक्षी - श्लोकों के प्रतीक और विस्तृत उपक्रम (प्रस्तावना ) है । प्रस्तावना के अन्त में धर्मघोषसूरिकृत स्तुतिस्तोत्रों की सूची दी गई है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002097
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, Agam, Karma, Achar, & Philosophy
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy