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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास २५ ) के आधार पर आयोजित है । इसमें पुलाक, बकुश इत्यादि पांच प्रकार के निर्ग्रन्थों का निरूपण है। पंचवत्थुग (पंचवस्तुक):
यह हरिभद्रसूरि की जैन महाराष्ट्री में रचित १७१४ पद्य की कृति' है। यह निम्नोक्त पाँच अधिकारों में विभक्त है : १. प्रव्रज्या की विधि, २. प्रतिदिन की क्रिया, ३. व्रतों के विषय में स्थापना, ४. अनुयोग और गण की अनुज्ञा और ५. संलेखना। इन पांच वस्तुओं से सम्बद्ध पद्य-संख्या क्रमशः २२८, ३८१, ३२१, ४३४ और ३५० है ।
यह ग्रन्थ जैन श्रमणों के लिये विशेषरूप से मनन करने योग्य है । इसमें दीक्षा किसे, कब और कौन दे सकता है इसकी विस्तृत चर्चा की गई है। द्वितीय वस्तु में उपधि की प्रतिलेखना, उपाश्रय का प्रमार्जन, भिक्षा ( गोचरी ) की विधि, ईर्यापथिकीपूर्वक कायोत्सर्ग, गोचरी की आलोचना, भोजन-पात्रों का प्रक्षालन, स्थण्डिल का विचार और उसकी भूमि तथा प्रतिक्रमण-इन सब का विचार किया गया है। चौथे अधिकार में 'थयपरिण्णा'२ (स्तवपरिज्ञा), जोकि एक पाहुड माना जाता है, उद्धृत की गई है। यह इस ग्रन्थ की महत्ता में वृद्धि करती है। इसके द्वारा द्रव्य-स्तव और भाव-स्तव का निरूपण किया गया है।
टोका-५०५० श्लोक-परिमाण की 'शिष्यहिता' नाम की व्याख्या स्वयं ग्रन्थकार ने लिखी है। न्यायाचार्य यशोविजयजी ने 'मार्गविशुद्धि' नाम की कृति 'पंचवत्थुग' के आधार पर लिखी है। इन्होंने 'प्रतिमाशतक' के श्लोक ६७ की स्वोपज्ञ टीका में 'थयपरिण्णा' को उद्धृत करके उसका संक्षेप में स्पष्टीकरण किया है।
१. स्वोपज्ञ टीका के साथ देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्थाने संन् १९३२
में प्रकाशित किया है । २. इसके विषय में विशेष जानकारी 'जैन सत्यप्रकाश' ( वर्ष २१, अंक १२)
में प्रकाशित 'थयपरिण्णा ( स्तवपरिज्ञा ) अने तेनी यशोव्याख्या' नामक
लेख में दी गई है। ३. आगमोद्धारक आनन्द सागरसूरि ने इसका गुजराती अनुवाद किया है और
वह ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था ने सन् १९३७ में प्रकाशित किया है।
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