________________
अनगार और सागार का आचार
दंसणसार (दर्शनसार ) :
जैन शौरसेनी में विरचित ५१ पद्यों की यह कृति' देवसेन ने वि० सं० ९९० में लिखी है । इसमें इन्होंने नौ अजैन सम्प्रदाय तथा जैन सम्प्रदायों में से श्वेता-म्बर संप्रदाय का विचार किया है । ये द्राविड़, यापनीय, काष्ठा, माथुरा और भिल्लय संघों को जैनाभास मानते हैं । ये देवसेन विमलसेन के शिष्य और आराधनासार के रचयिता हैं ।
दर्शनसार दोहा :
यह माइल्ल घवल की रचना है ।
१. श्रावकप्रज्ञप्ति :
२७१
इस नाम की संस्कृत कृति की रचना उमास्वाति ने की थी यह अनुमान धर्मंसंग्रह की स्वोपज्ञ टीका, घर्मबिन्दु की मुनिचन्द्रसूरिकृत टीका आदि में आये हुए उल्लेखों से होता है, परन्तु यह आजतक उपलब्ध नहीं हुई है २. सावयपण्णत्ति (श्रावकप्रज्ञप्ति) :
जैन महाराष्ट्री में रचित ४०५ कारिका को यह कृति प्रशमरति आदि के रचयिता उमास्वाति की है ऐसा कई हस्तलिखित प्रतियों के अन्त में उल्लेख आता है, किन्तु यह हरिभद्रसूरि की कृति है यह 'पंचासग' को अभयदेवसूरिकृत वृत्ति लावण्यसूरिकृत द्रव्यसप्तप्ति आदि के उल्लेखों से ज्ञात होता है ।
प्रस्तुत कृति में 'सावग' शब्द की व्युत्पत्ति, सम्यक्त्व, आठ प्रकार के कर्म, नव तत्त्व, श्रावक के बारह व्रतों का निरूपण और अन्त में श्रावक की सामाचारी — इस प्रकार विविध विषय आते हैं । श्रावक के पहले और नवें व्रत की विचारणा में कितनी ही महत्त्व की बातों का उल्लेख किया: गया है ।
१. यह Annals of Bhandarkar Oriental Research Institute: (Vol. XV, pp. 198-206 ) में छपा है । इसका सम्पादन डॉ० ए० एन० उपाध्ये ने किया है ।
२. देखिए — दूसरे व्रत को व्याख्या में 'अतिथि' के सम्बन्ध में दिया गया
अवतरण ।
३. के० पी० मोदी द्वारा सम्पादित यह कृति संस्कृत छाया के साथ 'ज्ञान प्रसारक मण्डल' बम्बई ने प्रकाशित की है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org