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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास इनके अतिरिक्त गुणस्थानों के बारे में दूसरी कई रचनाएँ गुजराती में हुई हैं। उनके नाम आदि का विवरण 'कर्म-सिद्धान्तसम्बन्धी साहित्य' पृ० ९३-९४ में दिया गया है।
संसारी आत्मा के अधःपतन में-उसकी अवनति में आठों कर्मों में से 'मोहनीय' कर्म प्रमुख है और उसका योग सबसे अधिक है। उसका सम्पूर्ण क्षय होने पर संसारी आत्मा सर्वज्ञत्व और आगे चलकर परम पद प्राप्त करता हैपरमात्मा बनता है। उपशमश्रेणिस्वरूप और क्षपकश्रेणिस्वरूप :
इन दोनों की एक-एक हस्तप्रति अहमदाबाद के डहेला के भंडार में है । खवग-सेढी (क्षपक-श्रेणि):
क्षपक श्रेणी का स्वरूप प्रसंगवशात् विविध प्राचीन ग्रन्थों में बतलाया गया है। उसके आधार पर यह कृति' मुनि श्री गुणरत्नविजय ने प्राकृत में २७१ गाथाओं में रची है तथा उस पर १७२५० श्लोक-प्रमाण संस्कृत वृत्ति भी लिखी है। ठिइ-बंध ( स्थिति-बंध):
मूलप्रकृति-स्थितिबन्ध के मूलगाथाकार मुनि श्री वीरशेखरविजय हैं । इसकी संस्कृत टीका मुनि श्री जगच्चन्द्रविजय ने लिखी है। मूलग्रन्थ में ८७६ गाथाएँ हैं । खवग-सेढी तथा ठिइ-बंध एवं उनकी टीकाओं के प्रेरक, मार्गदर्शक और संशोधक आचार्य विजयप्रेमसूरि हैं ।
१. टीकासहित भारतीय प्राच्यतत्त्व प्रकाशन समिति, पिण्डवाडा ने सन् १९६६
में प्रकाशित की है। २. यह कृति भी टीकासहित वहीं से सन् १९६६ में प्रकाशित हुई है ।
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