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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास १. समता, २. स्त्रोममत्वलोचन, ३. अपत्यममत्वमोचन, ४. धनममत्वमोचन, ५. देहममत्वमोचन, ६. विषयप्रमादत्याग, ७. कषायत्याग, ८. शास्त्राभ्यास, ९. मनोनिग्रह, १०. वैराग्योपदेश, ११. धर्मशुद्धि, १२. गुरुशुद्धि, १३. यतिशिक्षा, १४. मिथ्यात्वादिनिरोध, १५. शुभवृत्ति और १६. साम्यस्वरूप ।
ये सब शीर्षक अधिकारों में आनेवाले विषयों के बोधक हैं ।
यह कृति शान्तरस से अनुप्लावित है । यह मुमुक्षुओं को ममता के परित्याग, कषायादि के निवारण, मनोविजय, वैराग्य पथ के अनुरागी बनने तथा समता एवं साम्य का सेवन करने का उपदेश देती है।
पौर्वापर्य-उपदेशरत्नाकर के स्वोपज्ञ विवरण में अध्यात्मकल्पद्रुम में से कतिपय पद्य उद्धृत किये गये हैं। इस दृष्टि से अध्यात्मकल्पद्रुम इस विवरण की अपेक्षा प्राचीन समझा जा सकता है । रत्नचन्द्रगणी के कथनानुसार गुर्वावली को रचना अध्यात्मकल्पद्रुम से पहले हुई है।
विवरण प्रस्तुत कृति पर तीन विवरण हैं : १. धनविजयगणीकृत अधिरोहिणी । २. सूरत में वि० सं० १६२४ में रत्नसूरिरचित अध्यात्मकल्पलता। ३. उपाध्याय विद्यासागरकृत टीका । इनमें से पूर्व के दो ही विवरण प्रकाशित जान पड़ते हैं ।
बालावबोध-उपयुक्त अध्यात्मकल्पलता के आधार पर हंसरत्न ने अध्यात्मकल्पद्रुम पर एक बालावबोध लिखा था। जीवविजय ने भी वि० सं० १७८० में एक बालावबोध रचा था ।
में छपवाई थी। इसी टीका, रत्नचन्द्रगणीकृत अध्यात्मकल्पलता नाम की अन्य टीका, मूल का रंगविलास द्वारा चौपाई में किया गया अध्यात्मरास नामक अनुवाद तथा मो० द० देसाई के विस्तृत उपोद्घात के साथ 'देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था' ने सन् १९४० में यह ग्रन्थ प्रकाशित किया है। 'जैनधर्म प्रसारक सभा' ने मूल की, उसके मो० गि० कापडियाकृत गुजराती अनुवाद और भावार्थ तथा उपर्युक्त अध्यात्मरास के साथ द्वितीय आवृत्ति सन् १९११ में प्रकाशित की थी। प्रकरणरत्नाकर ( भा० २ ) में मूल कृति हंसरत्न के बालावबोध के साथ सन् १९०३ में प्रकाशित की गई थी।
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