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________________ २५६ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास १. अध्रुवत्व, २. अशरणत्व, ३. एकत्व, ४. अन्यत्व, ५. संसार, ६. लोक, ७. अशुचित्व, ८. आश्रव, ९. संवर, १०. निर्जरा, ११. धर्म और १२. बोधिदुर्लभता । इस विषय का निरूपण वट्टकेर ने मूलाचार ( प्रक० ८ ) में और शिवार्य (शिवकोटि ) ने भगवती आराधना में किया है। धवल ने अपभ्रंश में रचित अपने हरिवंशपुराण में, सिंहनन्दी ने अनुप्रेक्षा के बारे में कोई रचना की थी, ऐसा कहा है। २. बारसानुवेक्खा अथवा कार्तिकेयानुप्रेक्षा : कार्तिकेय (अपर नाम कुमार ) रचित इस कृति' में ४८९ गाथाएँ हैं । इसमें उपर्युक्त बारह अनुप्रेक्षाओं का विस्तृत विवेचन किया गया है । टीका-मूलसंघ के विजयकीर्ति के शिष्य शुभचन्द्र ने वि० सं० १६१३ में यह टीका लिखी है। ३. द्वादशानुप्रेक्षा : इस नाम की तीन संस्कृत कृतियां हैं : १. सोमदेवकृत, २. कल्याणकीर्तिकृत और ३. अज्ञातकर्तृक । द्वादशभावना : इस नाम की एक अज्ञातकर्तृक रचना का परिणाम ६८३ श्लोक है। द्वादशभावनाकुलक : यह भी एक अज्ञातकर्तृक रचना है । शान्तसुधारस : गीतगोविन्द जैसे इस गेय काव्य के प्रणेता वैयाकरण विनयविजयगणी हैं। :२. १. यह नाथारंग गाँधी ने प्रकाशित की है। इसके अलावा 'सुलभ जैन ग्रन्थ माला' में भी सन् १९२१ में यह प्रकाशित हुई है। यह कृति प्रकरणरत्नाकर ( भा० २) में तथा सन् १९२४ में श्रुतज्ञानअमीधारा में प्रकाशित हुई है। जैनधर्म प्रसारक सभा ने गम्भीरविजयगणीकृत टीका के साथ यह कृति वि० सं० १९६९ में प्रकाशित की थी। इसके अतिरिक्त इसी सभा ने मोतीचन्द गिरधरलाल कापडिया के अनुवाद एवं विवेचन के साथ यह कृति दो भागों में क्रमशः सन् १९३६ और १९३७ में प्रकाशित की है। इस पर म० कि० महेता ने भी अर्थ और विवेचन लिखा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002097
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, Agam, Karma, Achar, & Philosophy
File Size14 MB
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