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योग और अध्यात्म
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इन्होंने गन्धपुर ( गान्धार ) नगर में २३४ श्लोकों में यह कृति वि० सं० १९७२३ में लिखी है । इसमें इन्होंने बारह भावनाओं के अतिरिक्त मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य इन चार भावनाओं को भी स्थान दिया है ।
टीका - गम्भीरविजयजी ने तथा किसी तेरापंथी ने भी प्रस्तुत कृति पर एक-एक टीका संस्कृत में लिखी है ।
अनुवाद और विवेचन - मूल के अनुवाद और विवेचन लिखे गये हैं और वे छपे भी हैं ।
१. समाधितन्त्र :
जिनरत्नकोश ( वि० १, पृ० ४२१ ) में यह ग्रन्थ कुन्दकुन्दाचार्य ने लिखा ऐसा उल्लेख आता है । इसपर दो टीकाएँ लिखी गई हैं : १. पर्वतधर्मं - रचित और २. नाथुलालकृत । ये दोनों टीकाएँ तथा मूल अप्रकाशित ज्ञात होते हैं, अतः इस विषय में सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि इसमें समाधि के बारे में निरूपण होना चाहिए ।
२. समाधितन्त्र अथवा समाधिशतक :
यह ' दिगम्बराचार्यं पूज्यपाद की १०५ पद्यों की रचना है । इसका 'समाधिशतक' नाम १०५ वें पद्य में आता है । डा० पी० एल० वैद्य के मत से यह पद्य तथा पद्य संख्या २, ३, १०३ और १०४ प्रक्षिप्त हैं । इस कृति में आत्मा के बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा इन तीन भेदों पर प्रकाश डाला गया है ।
१. यह कृति 'सनातन जैन ग्रन्थमाला' में सन् १९०५ में प्रकाशित हुई है । फते चन्द देहली ने यही कृति दिल्ली से अन्वयार्थ और हिन्दी भावार्थ के साथ वि० सं० १९७८ में छपवाई है । इसके पहले अंग्रेजी अनुवाद के साथ एम० एन० द्विवेदी ने अहमदाबाद से सन् १८९५ में यह कृति छपवाई थी | मराठी अनुवाद के साथ इसकी द्वितीय आवृत्ति सोलापुर के आर० एन० शाह ने सन् १९४० में प्रकाशित की है ।
प्रस्तुत कृति पर दिगम्बराचार्य प्रभाचन्द्रकृत टीका है । उसका तथा मूल का अनुवाद मणिलाल नभुभाई द्विवेदी ने किया है । वह एक ग्रन्थ के रूप में 'समाधिशतक' नाम से 'वडोदरा देवी केलवणी खातुं' की ओर से सन् १८९१ में प्रकाशित हुआ है ।
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