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________________ :५४ जैन साहित्य का बृहद् इतिहासः और पुण्यभूति के दृष्टान्तों का उल्लेख; भवनयोग और करणयोग का स्पष्टीकरण, ९६ (१२४८) करण, छद्मस्थ के ध्यान के ४, ४२, ३६८ प्रकार और योग के २९० आलम्बनों के बारे में इस कृति में निर्देश है । मरुदेवा की भाँति जो योग सहज भाव से होते हैं, वे भवनयोग और ये ही योग उपयोगपूर्वक किये जाते हैं तब करणयोग कहे जाते हैं । जिनरत्नकोश (वि० १, पृ० १९९) में एक अज्ञातकतृ'क ध्यानविचार का उल्लेख है। वह यही कृति है या दूसरी, यह तो उसकी हस्तप्रति देखने पर ही कहा जा सकता है। ध्यानदण्डकस्तुति : वज्रसेनसूरि के शिष्य रत्नशेखरसूरि ने जिनरत्नकोश (वि० १, पृ० १०६) के उल्लेखानुसार वि० सं० १४४७ में 'गुणस्थानकमारोह' लिखा है।' उसके श्लो० ५२ की स्वोपज्ञ वृत्ति (पत्र ३७) में ध्यान का स्वरूप बतलाते हुए और श्लो० ५४ की वृत्ति (पत्र ३८) में प्राणायाम का स्पष्टीकरण करते समय ध्यानदण्डकस्तुति का उल्लेख करके उसमें से निम्नलिखित एक-एक श्लोक उद्धृत किया है : नासावंशाग्रभागास्थितनयनयुगो मुक्तताराप्रचारः शेषाक्षक्षीणवृत्ति स्त्रिभुवनविवरोभ्रान्तयोगैकचक्षुः । पर्यङ्कातङ्कशून्यः परिकलितघनोच्छ्वासनिःश्वासवातः स ध्यानारूमूढतिश्चिरमवतु जिनो जन्मसम्भूतिभीतेः ।। संकोच्यापानरन्ध्र हुतवहसदृशं तन्तुवत् सूक्ष्मरूपं धृत्वा हृत्पद्मकोशे तदनु च गलके तालुनि प्राणशक्तिम् । नीत्वा शून्यातिशून्यां पुनरपि खगति दीप्यमानां समन्तात् लोकालोकावलोकां कलयति स कलां यस्य तुष्टो जिनेशः ।। इन दोनों उद्धरणों पर विचार करने से नीचे की बातें ज्ञात होती हैं : प्रस्तुत कृति संस्कृत में है । वह पद्यात्मक होगी। यह जिनेश्वर की स्तुतिरूप है, अतः यह जैन रचना है। इसका मुख्य विषय ध्यान का निरूपण है । १. यह ग्रन्थ भिन्न-भिन्न संस्थाओं की ओर प्रकाशित हुआ है। इसका विशेष परिचय आगे आएगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002097
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, Agam, Karma, Achar, & Philosophy
File Size14 MB
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