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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भेदों का स्वरूप, आर्तध्यान के राग, द्वेष और मोह ये तीन बीज; आर्तध्यान करनेवाले को लेश्या और उसके लिंग; रौद्र ध्यान के चार भेद; रौद्र ध्यान करनेवाले की लेश्या और उसके लिंग धर्म्य (धर्म) ध्यान को लक्ष्य में रखकर ज्ञानभावना, दर्शनभावना, चारित्रभावना और वैराग्यभावना-इन चार भावनाओं का स्वरूप; ध्यान से सम्बद्ध देश, काल, आसन और आलम्बन; धर्म्य (धर्म) ध्यान के चार भेद; उसके तथा शुक्लध्यान के चार भेदों में से आद्य दो भेदों के ध्याता; धम्यं ध्यान के पश्चात् की जानेवाली अनुप्रेक्षा अर्थात् भावना; धर्म्य ध्यान करनेवाले की लेश्या और उसके लिंग; शक्ल ध्यान के लिए आलम्बन; केवलज्ञानियों द्वारा किए जाते योग-निरोध की विधि; शुक्ल ध्यान में ध्याता, अनुप्रेक्षा, लेश्या और लिंग; धर्म्य ध्यान और शुक्ल ध्यान के फल और १०५वीं गाथा द्वारा उपसंहार ।
टीका-झाणज्झयण पर समभावी हरिभद्रसूरि ने जो टोका लिखी है उससे पहले (पत्र ५८१ आ में) ध्यान के बारे में संक्षिप्त जानकारी दी है। इसके पश्चात् १०५ गाथाओं पर अपनी टीका लिखी है और वह प्रकाशित भी हुई है । इसका टिप्पण भी छपा है । इसपर एक अज्ञातकर्तृक टीका भी है। ध्यानविचार :
इसकी' एक हस्तप्रति पाटन के किसी भण्डार में है। गद्यात्मक वह संस्कृत कृति ध्यान-मार्ग के चौबीस प्रकार, चिन्ता, भावना-ध्यान, अनुप्रेक्षा, भवनयोग और करणयोग जैसे विविध विषयों पर प्रकाश डालती है । यह प्रत्येक
१. यह कृति 'जैन साहित्य विकास मंडल' की ओर से सन् १९६१ में प्रकाशित
'नमस्कारस्वाध्याय' (प्राकृत विभाग) के पृ० २२५ से २६० में गुजराती अनुवाद, सन्तुलना आदि के लिए टिप्पण और सात परिशिष्टों के साथ छपी है । यह प्राकृत विभाग जब छप रहा था उसी समय यह समग्र रचना इसी संस्था ने सन् १९६० में स्वतंत्र पुस्तिका के रूप में आरम्भ में देहषट्कोणयन्त्र (भारतीय यन्त्र) और अन्त में दो यंत्रचित्रों के साथ प्रकाशित की है । इनमें से प्रथम यंत्रचित्र चौबीस तीर्थंकरों की माताएँ अपने तीर्थकर बननेवाले पुत्र की ओर देखती हैं उससे सम्बन्धित है, जबकि दूसरा ध्यान के बीसवें प्रकार 'परममात्रा' का चौबीस वलयों के सहित आलेखन है। यह यंत्रचित्र तो उपर्युक्त नमस्कारस्वाध्याय में भी है।
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