SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 266
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योग और अध्यात्म २५१ 'ध्यानशतकस्य च महार्थत्वाद् वस्तुतः शास्त्रान्तरत्वात् प्रारम्भ एव विघ्नविनायकोपशान्तये मङ्गलार्थमिष्टदेवतानमस्कारमाह ।' हरिभद्रसूरि ने अथवा उनकी शिष्यहिता के टिप्पनकार ने इस कृति के कर्ता कौन हैं यह नहीं लिखा। यह आवश्यक की नियुक्ति के एक भागरूप (प्रतिक्रमणनियुक्ति के पश्चात्) है, अतः इसके कर्ता नियुक्तिकार भद्रबाहु हैं ऐसी कल्पना हो सकती है और पं० दलसुखभाई मालवणिया तो वैसा मानने के लिए प्रेरित भी हुए हैं। इस तरह प्रस्तुत कृति के कर्ता के रूप में कोई जिनभद्र क्षमाश्रमण का, तो कोई भद्रबाहु स्वामी का निर्देश करते हैं। प्रथम पक्ष मान्य रखने पर क्षमाश्रमण के सत्ता-समय का विचार करना चाहिये। विचारश्रेणी के अनुसार जिनभद्र का स्वर्गवास वीर-संवत् ११२० में अर्थात् वि० सं० ६५० में हुआ था, परन्तु धर्मसागरीय पट्टावली के अनुसार वह वि० सं० ७०५ से ७१० के बीच माना जाता है। विशेषावश्यक की एक हस्तप्रति में शकसंवत् ५३१ अर्थात् वि० सं० ६६६ का उल्लेख है। इस परिस्थिति में प्रस्तुत कृति की पूर्वसीमा आवश्यक-नियुक्ति के आस-पास का समय तथा उत्तरसीमा जिनभद्र के वि० सं० ६५० में हुए स्वर्गवास का समय माना जा सकता है। यहाँ पर इस कृति के कर्ता और उसके समय के बारे में इससे अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता। हाँ, इसमें आनेवाले विषय के बारे में कुछ कहना अवसरप्राप्त है। इसकी आद्य गाथा में महावीर स्वामी को प्रणाम किया गया है । ऐसा करते समय उनको जोगीसर (योगीश्वर) कहा गया है। इससे पहले किसी ग्रन्थकार ने क्या ऐसा कहा है ? प्रस्तुत कृति का विषय ध्यान का निरूपण है। दूसरी गाथा में ध्यान का लक्षण बतलाते हुए कहा है कि स्थिर अध्यवसाय ही ध्यान है, जो चल-अनवस्थित है वह चित्त है और इस चित्त के ओघदृष्टि से भावना, अनुप्रेक्षा और चिन्ता ये तीन प्रकार हैं। इसके अनन्तर निम्नांकित बातों का निरूपण है : छद्मस्थ के ध्यान के समय के रूप में अन्तर्मुहर्त का उल्लेख; योगों का अर्थात् कायिक आदि प्रवृत्तियों का निरोध ही जिनों का-केवलज्ञानियों का ध्यान-काल; ध्यान के आर्त, रौद्र, धर्म्य ( धर्म ) और शुक्ल-ये चार प्रकार तथा उनके फल; आर्तध्यान के चार १. देखिए-गणधरवाद की प्रस्तावना, पृ० ४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002097
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, Agam, Karma, Achar, & Philosophy
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy