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योग और अध्यात्म
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वि० सं० १५०८ में लिखी उपलब्ध है । मेरुसुन्दरगणी ने वि० सं० १५०८ में बालावबोध लिखा था ऐसा जिनरत्नकोश (वि० १, पृ० ३२४ ) में उल्लेख आता है | गणीजी ने उपर्युक्त बालावबोध को लिपिबद्ध तो नहीं किया होगा ? ऐसा प्रश्न होता है ।
वार्तिक- इसके रचयिता का नाम इन्द्रसौभाग्यगणी है । ज्ञानार्णव, योगार्णव अथवा योगप्रदीप :
यह कृति दिगम्बर शुभचन्द्र ने २०७७ श्लोकों में रची है । यह ४२ सर्गों में विभक्त है । ज्ञानार्णव की रचना अंशतः शिथिल है । यह उपदेशप्रधान ग्रन्थ है । इससे ऐसा लगता है कि कालान्तर में इसमें प्रक्षेप होते रहे होंगे । इसकी भाषा सुगम और शैली हृदयंगम है। इससे यह कृति सार्वजनीन बन सकती है; परन्तु शुभचन्द्र के मत से गृहस्थ योग का अधिकारी नहीं है, इस बात में ज्ञानार्णव हैम योगशास्त्र से भिन्न है । इसीलिए इसमें महाव्रत और उनकी भावनाओं का हम योगशास्त्र की अपेक्षा विशेष निरूपण है ।
ज्ञानार्णव (सर्ग २१-२७ ) में कहा है कि आत्मा स्वयं ज्ञान, दर्शन और चारित्र है । उसे कषायरहित बनाने का नाम ही मोक्ष है । इसका उपाय इन्द्रिय पर विजय प्राप्ति है । इस विजयप्राप्ति का उपाय चित्तकी शुद्धि, इस शुद्धि का उपाय राग-द्वेषविजय, इस विजय का उपाय समत्व और समत्व की प्राप्ति हो । ध्यान की योग्यता है । इस प्रकार जो विविध बातें इसमें आती हैं उनकी तुलना योगशास्त्र ( प्रका० ४ ) के साथ करने योग्य है ।
ज्ञानार्णव में प्राणायाम के विषय का निरूपण लगभग १०० श्लोकों में आता है, यद्यपि हेमचन्द्रसूरि की तरह इसके कर्ता भी प्राणायाम को निरुपयोगी और अनर्थकारी मानते हैं । ज्ञानार्णव में अनुप्रेक्षाविषयक लगभग २००
१. सम्पूर्ण मूल कृति तथा उसके प्र० १ से ४ का गुजराती एवं जर्मन में अनुवाद हुआ है और वे सब प्रकाशित भी हैं। आठवें प्रकाश का गुजराती अनुवाद 'महाप्रभाविक नवस्मरण' नामक पुस्तक में छपा है । उससे सम्बन्ध रखनेवाले ५ से २३ अर्थात् गये हैं । पाँचवाँ चित्र ध्यानस्थ पुरुष का है, जबकि अवशिष्ट पदस्थ ध्यान से सम्बन्धित हैं |
पृ० १२२ - १३४ पर १९ चित्र उसमें दिये
२. यह कृति 'रायचन्द जैन शास्त्रमाला' में सन् १९०७ में प्रकाशित
हुई है।
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