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जैन साहित्य का बृहद इतिहास
श्लोक हैं । इसके सर्ग २९ से ४२ में प्राणायाम तथा ध्यान के बारे में विस्तृत विवेचन है । ज्ञानार्णव में, पवनजय से मृत्यु का भाविसूचन होता है, ऐसा कहा है, परन्तु इसके लिए शकुन, ज्योतिष आदि अन्य उपायों का निर्देश नहीं है ।
पूर्वसीमा निश्चित
रचना - समय - ज्ञानार्णव के कई श्लोक इष्टोपदेश की वृत्ति में दिगम्बर आशाधर ने उद्धृत किये हैं । इस आधार पर वि० सं० १२५० के आसपास इसकी रचना हुई होगी, ऐसा माना जा सकता है । ज्ञानार्णव में दिगम्बर जिनसेन एवं अकलंक का उल्लेख है, अतः उस आधार पर इसकी की जा सकती है । जिनरत्नकोश ( वि० १, पृ० १५० ) में ज्ञानार्णव की एक हस्तप्रति वि० सं० १२८४ में लिखी होने का उल्लेख है । यह इस कृति की उत्तरसीमा निश्चित करने में सहायक होती है । ज्ञानार्णव की रचना हैम योगशास्त्र से पहले हुई है या पश्चात्, इसके बारे में जैन संस्कृत साहित्यनो इतिहास ( खण्ड २, उपखण्ड १ ) में चर्चा की गई है ।
ज्ञानार्णव पर निम्नलिखित तीन टीकाएँ हैं :
१. तत्त्वत्रयप्रकाशिनी - यह दिगम्बर श्रुतसागर की रचना है । ये देवेन्द्रकीर्ति के अनुगामी विद्यानन्दी के शिष्य थे । इनकी यह कृति इनके गुरुभाई सिंहनन्दी की अभ्यर्थना के फलस्वरूप लिखी गई है ।
२. टीका - इसके कर्ता का नाम नयविलास है ।
३. टीका - यह अज्ञातकर्तृक है ।
ज्ञानार्णवसारोद्धार :
इसका जिनरत्नकोश ( वि० १, पृ० १५० ) में उल्लेख आता है । यह उपयुक्त ज्ञानार्णव का अथवा न्यायाचार्य श्री यशोविजयगणी के ज्ञानार्णव का संक्षिप्त रूप है, यह ज्ञात नहीं ।
ध्यानदीपिका :
यह कृति ' खरतरगच्छ के दीपचन्द्र के शिष्य देवचन्द्र ने वि० सं० १७६६ में तत्कालीन गुजराती भाषा में रची है । शुभचन्द्रकृत ज्ञानार्णव का जो लाभ
१. यह कृति 'अध्यात्म ज्ञान प्रसारक मण्डल' द्वारा श्रीमद् देवचन्द्र ( भा० २ ) की सन् १९२९ में प्रकाशित द्वितीय आवृत्ति के पृ० १ से १२३ में आती है । वहाँ उसका नाम पुष्पिका के अनुसार 'ध्यानदीपिका चतुष्पदी' रखा है, परंतु ग्रन्थकार ने तो अन्तिम पद्य में 'ध्यानदीपिका' नामनिर्देश किया है | अतः यहाँ यही नाम रखा गया है ।
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