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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
पहले श्लोक में वीर जिनेश्वर को वन्दन किया है, दूसरे में टीकाकार ने अपने गुरु को प्रणाम किया है । साथ ही, अपने गुरु का 'चतुर्धागमवेदी' इत्यादि विशेषणों द्वारा निर्देश किया है । अन्त में प्रशस्तिरूप एक श्लोक है । उसमें प्रस्तुत टीका का नाम, रचना वर्ष तथा किसके बोधार्थ यह टीका लिखी है ये सब बातें आती हैं । इस टीका में योगशास्त्र के प्रणेता हेमचन्द्रसूरि को 'विद्वद्विशिष्ट' एवं 'परमयोगीश्वर' कहा है ।
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हेमचन्द्रसूरिकृत योगशास्त्र के बारहों प्रकाशों पर उनका स्वोपज्ञ विवरण है, परन्तु उसके अधिकांश भाग में प्रकाश १-४ का स्पष्टीकरण ही आता है ।" पाँचवाँ प्रकाश सबसे बड़ा है । यह योगिरमा टीका नौ अधिकारों में विभक्त है । इसमें ५८ श्लोकों का 'गर्भोत्पत्ति' नामक प्रथम अधिकार है । यह अब तक प्रकाशित योगशास्त्र अथवा उसके स्वोपज्ञ विवरण में नहीं है । इस आधार पर श्री जुगलकिशोरजी ने ऐसी सम्भावना व्यक्त की है कि योगशास्त्र की प्रथम लिखित प्रतियों में वह रहा होगा, परन्तु निरर्थक लगने पर आगे जाकर निकाल दिया गया होगा ।
यह योगिरमा टीका अन्तिम आठ प्रकाशों पर सविशेष प्रकाश डालती है । उसके आठ अधिकार अनुक्रम से प्रकाश ५ से १२ हैं । इसमें मूल के नाम से निर्दिष्ट श्लोकों की संख्या योगशास्त्र के साथ मिलाने पर कमोबेश मालूम होती हैं । इसके अलावा उसमें पाठभेद भी हैं। चौथे तथा पाँचवें अधिकारों में जो स्पष्टीकरण आता है उसमें आनेवाले कई मंत्र और यंत्र योगशास्त्र अथवा उसके स्वोपज्ञ विवरण में उपलब्ध नहीं हैं सातवें अधिकार के कतिपय श्लोक स्वोपज्ञ विवरणगत आन्तर - श्लोक हैं ।
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वृत्ति - यह अमरप्रभसूरि ने लिखी है । वे पद्मप्रभसूरि के शिष्य थे । इस वृत्ति की एक हस्तप्रति वि० सं० १६१९ की लिखी मिलती है ।
टीका-टिप्पण - यह अज्ञातकर्तृक रचना है ।
अवचूरि- इसके कर्ता का नाम ज्ञात नहीं है ।
बालावबोध - इस गुजराती स्पष्टीकरण के प्रणेता सोमसुन्दरसूरि हैं । वे तपागच्छ के देवसुन्दरसूरि के शिष्य थे । उनकी इस कृति की एक हस्तप्रति
१. इन चारों प्रकाशों में तृतीय प्रकाश सबसे बड़ा है ।
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