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योग और अध्यात्म
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उनके अध्यात्मसन्दोह अथवा किसी अन्य कृति का होगा-ऐसा इसकी प्रस्तावना में कहा है । योगसार की एक हस्तप्रति वि० सं० ११९२ में लिखी हुई मिली है। इसका मुख्य विषय परमप्पयास से मिलता है ।
टीकाएँ ---जोगसार पर संस्कृत में दो टीकाएँ लिखी गई हैं । एक के कर्ता अमरकीति के शिष्य इन्द्रनन्दी हैं । दूसरी टीका अज्ञातकर्तृक है।
समान नामक कृतियाँ-वीतराग' अमितगति ने 'योगसार'१ नाम की एक औपदेशिक कृति लिखी है। वह नौ विभागों में विभक्त है । गुरुदास ने भी 'योगसार' नाम की एक दूसरी कृति रची है । इसके अलावा 'योगसार' नाम की एक कृति किसी विद्वान् ने लिखी है और उस पर अज्ञातकर्तृक टीका भी है। यह योगसार वही तो नहीं है, जिसका परिचय आगे दिया गया है ।
योगसार :
इस पद्यात्मक कृति के आद्य पद्य में कर्ता ने अपनी इस कृति का यह नाम सूचित किया है । उन्होंने समग्र कृति में अपने संक्षिप्त परिचय की तो बात ही क्या, अपना नाम तक नहीं दिया है । यह कृति १. यथावस्थितदेवस्वरूपोपदेशक, २. तत्त्वसारधर्मोपदेशक, ३. साम्योपदेश, ४. सत्त्वोपदेश और ५. भावशुद्धिजनकोपदेश इन पाँच प्रस्तावों में विभक्त है । इन पाँचों प्रस्तावों की पद्यसंख्या क्रमशः ४६, ३८, ३१, ४२ और ४९ है । इस प्रकार इसमें कुल २०६ पद्य हैं और वे सुगम संस्कृत में अनुष्टुप् छन्द में रचित हैं ।
उपर्युक्त पाँचों प्रस्तावों के नाम इस कृति में आनेवाले विषयों के द्योतक हैं । इस कृति का मुख्य विषय अनादिकाल से भवभ्रमण करनेवाला जीव किस प्रकार परम पद प्राप्त कर सकता है यह दिखलाना है । इसके उपाय स्पष्ट रूप से यहाँ दरसाये है। इस कृति में अभय, कालशौकरिक, वीर आदि नाम दृष्टिगोचर होते है।
१. यह कृति 'सनातन जैन ग्रन्थावली' के १६ वें ग्रन्थरूप में सन् १९१८ में
प्रकाशित हुई है। २. यह कृति श्री हरगोविन्ददास त्रिकमलाल सेठ के गुजराती अनुवाद के साथ
'जैन विविध साहित्य शास्त्रमाला कार्यालय' वाराणसो ने वि० सं० १९६७ में प्रकाशित की थी। यह संस्करण अब दुष्प्राप्य है, अतः 'जैन साहित्य विकास मण्डल' ने इसे पुनः छपवाया है। इसमें पाठान्तर, अनुवाद और परिशिष्ट के रूप में पद्यों के प्रतीकों की सूची दी गई है। प्राक्कथन में प्रत्येक प्रस्ताव में आनेवाले विषयों का संक्षेप में निरूपण है ।
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