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जैन साहित्य का बृहद इतिहास
रचना समय -- प्रस्तुत कृति की रचना कब हुई इसका इसमें निर्देश नहीं है, परन्तु इसकी पूर्व सीमा द्वितीय प्रस्ताव के निम्नलिखित श्लोक के आधार पर निश्चित की जा सकती है :
२४२
"नाञ्चलो मुखवस्त्रं न न राका न चतुर्दशी ।
न श्राद्धादिप्रतिष्ठा वा तत्त्वं किन्त्वमलं मनः " ॥ २४ ॥
इसमें निम्नलिखित मतान्तरों का उल्लेख है :
१. 'अंचल' मत' प्रतिक्रमण करते समय वस्त्र का छोर मुख के आगे रखता है, तो अन्य मत मुखवस्त्रिका ( मुहपत्ति ) रखने का आग्रह करता है ।
२. एक मत के अनुसार पाक्षिक प्रतिक्रमण पूर्णिमा के दिन करना चाहिए, तो दूसरे के अनुसार चतुर्दशी को ।
३. एक मत के अनुसार श्रावकों द्वारा की गई प्रतिष्ठा स्वीकार्य है, तो - दूसरे के अनुसार आचार्यों द्वारा की गई प्रतिष्ठा ।
इस प्रकार यहाँ जिन मत-मतान्तरों का निर्देश किया गया है उसके आधार पर इन मतों की उत्पत्ति के पश्चात् प्रस्तुत कृति की रचना हुई है, ऐसा फलित होता है । अतः यह विक्रम की बारहवीं शती से पूर्व की रचना नहीं है । योगशास्त्र अथवा अध्यात्मोपनिषद् :
यह कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्रसूरि की कृति है जो बारह प्रकाशों में विभक्त है । इन प्रकाशों की पद्य संख्या क्रमशः ५६, ११५, १५६, १३६, २७३, ८,
९. इस मत की उत्पत्ति वि० सं० १९६९ में हुई है ।
- २. इसका प्रकाशन सन् १९१२ में 'जैनधर्म प्रसारक सभा' ने किया था । उसके पश्चात् इसी सभा धर्मदासगणिकृत उवएसमाला ( उपदेशमाला ) के साथ सन् १९१५ में यह पुनः प्रकाशित किया था । इसी सभा ने स्वोपज्ञ वृत्ति के साथ यह योगशास्त्र सन् १९२६ में छपाया है । शास्त्रविशारद धर्मविजयजी ( विजयधर्मसूरि ) ने स्वोपज्ञ वृत्ति के साथ इसका जो सम्पादन किया था उसका कुछ अंश 'बिब्लियोथिका इण्डिका' में प्रकाशित हुआ । समग्र मूल कृति 'विजयदानसूरीश्वर ग्रन्थमाला' में सन् १९३९ में प्रकाशित हुई है । हीरालाल हंसराजकृत गुजराती अनुवाद तथा स्वोपज्ञ वृत्ति ( विवरण ) के भावार्थ के साथ यह सम्पूर्ण कृति भीमसिंह माणेक ने सन् १८९९ में प्रकाशित की थी । ई० विण्डिश
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