________________
२४०
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास वे आत्मा के बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा इन तीन भेदों का निरूपण करते हैं । आत्मा के स्वरूप के निर्देशक अजैन मन्तव्य भी इन्होंने बतलाये हैं
और जैन दृष्टि के अनुसार उसकी आलोचना भी की है। इसमें परमात्मा के विकल और सकल इन दो भेदों का निर्देश करके उनका संक्षिप्त परिचय दिया गया है । प्रसंगोपात्त द्रव्य, गुणपर्याय, कर्म, निश्चयनय के अनुसार सम्यग्दृष्टि, मिथ्यात्व, मोक्ष, नैश्चयिक और व्यावहारिक मोक्षमार्ग और शुद्ध उपयोग पर भी प्रकाश डाला है।
___टोकाएं-इस परमप्पयास परब्रह्मदेव, प्रभाचन्द्र तथा अन्य किसी ने एकएक टीका लिखी है । पहली प्रकाशित है।
समान नामक कृति-पद्मनन्दी ने संस्कृत में १३०० श्लोक-परिमाण 'परमात्म प्रकाश' नाम की एक कृति रची है ।
जोगसार ( योगसार ) अथवा दोहासार :
यह अपभ्रश के १०८ दोहों में परमप्पयास के कर्ता जोइन्दु ( योगीन्दु ) की अध्यात्मविषयक कृति है। इसके अन्तिम पद में इसके कर्ता का नामोल्लेख "जोगिचंद मुणि' के रूप में मिलता है। इससे इसे योगिचन्द्र की कृति कहा जाता है। इसके प्रथम प्रकाशन ( पृ० १६ ) में कर्ता का नाम योगीन्द्रदेव दिया गया है, परन्तु सही नाम तो योगीन्दु है । इसके साथ ही नियप्पट्ठग ( निजात्माष्टक ) और अमृताशीति तथा परमप्पयास ( परमात्मप्रकाश ) भी इन्हीं की रचनाएँ हैं ऐसा यहाँ उल्लेख है। नियमसार की पद्मप्रभ मलधारिदेवकृत टीका में जो उद्धरण आता है वह अमृताशीति में तो उपलब्ध नहीं होता, अतः वह "तया चोक्तं श्रीयोगीन्द्रदेव:-- मुक्त्यंगनालिमपुनर्भवसांख्यमूलं" ऐसा
१. इस कृति को 'माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला' के २१ वें ग्रन्थ के
रूप में प्रकाशित 'सिद्धान्तसारादिसंग्रह' में संस्कृत-छाया के साथ पृ० ५५-७४ में स्थान मिला है। इसके आलावा इसी ग्रन्थ में ८२ पद्यों में रचित अमृताशीति ( पृ० ८५-१०१ ) और आठ पद्यों का निजात्माष्टक भी छपे हैं। __यह योगसार 'रायचन्द्र जैन ग्रन्थमाला' में परमात्मप्रकाश के परिशिष्ट रूप से सन् १९३७ में प्रकाशित हुआ है। इसका सम्पादन डा० ए० एन० उपाध्ये ने किया है। सन् १९६० में इसका द्वितीय संस्करण भी छपा है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org