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योग और अध्यात्म
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इस कृति में आध्यात्मिक विकास की प्राथमिक भूमिका का विचार न करके आगे की भूमिकाओं का निर्देश किया है ।
प्रस्तुत कृति की विषय एवं शैली की दृष्टि से षोडशक के साथ तुलना की जा सकती है।
विवरण-जोगविहाणवीसिया के ऊपर न्यायाचार्य श्री यशोविजयजी गणी ने संस्कृत में विवरण लिखा है । उसमें तीर्थ का अर्थ स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा है कि जैनों का समूह तीर्थ नहीं है। यदि वह समूह आज्ञारहित हो तो उसे 'हड्डियों का ढेर' समझना चाहिए। सूत्रोक्त यथोचित क्रिया करनेवाले साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका का समुदाय ही 'तीर्थ' है।
इस विवरण में आनेवाली कतिपय चर्चाओं में तर्कशैली का उपयोग किया गया है। योगबिन्दुगत अध्यात्म आदि योग के पाँच भेदों को उपाध्यायजी ने क्रमशः स्थान आदि में घटाया है ।' परमप्पयास (परमात्मप्रकाश ) :
यह ३४५ दोहों में अपभ्रंश में जोगसार के कर्ता जोइन्दु ( योगीन्दु ) की कृति है। इसमें परमात्मा के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है। यह दो अधिकारों में विभक्त है । इसका आरम्भ परमात्मा तथा पंचपरमेष्ठी के नमस्कार के साथ हुआ है। भट्ट प्रभाकर की अभ्यर्थना से योगीन्दु परमात्मा का स्वरूप उसे समझाते हैं। ऐसा करते समय कुन्दकुन्दाचार्य और पूज्यपाद की भाँति
१. इसके स्पष्टीकरण के लिए देखिए-योगशतक की गुजराती प्रस्तावना,
५७ ( टिप्पण)। २. यह 'रायचन्द्र जैन ग्रन्थमाला' में ब्रह्मदेव की टीका के साथ सन् १९१५ में
प्रकाशित हुआ है। उसी वर्ष रिखबदास जैन के अंग्रेजी अनुवाद के साथ भी यह प्रकाशित हुआ है। अंग्रेजी में विशिष्ट प्रस्तावना तथा जोगसार के साथ इसका सम्पादन डा० ए० एन० उपाध्ये ने किया है जो 'रायचन्द्र जैन ग्रन्थमाला' में सन् १९३७ में छपा है। इसकी द्वितीय आवृत्ति सन् १९६० में प्रकाशित हुई है और उसमें अंग्रेजी प्रस्तावना का हिन्दी में सार भी दिया
गया है । द्वितीय संस्करण के अनुसार इसमें कुल ३५३ दोहे हैं । ३. देखिए-मोक्खपाहुड, गा० ५-८. ४. देखिए-समाधिशतक, पृ० २८१-९६ ( सनातन जैन ग्रन्थमाला का
प्रकाशन )।
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