________________
२३६
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
गया है । इसके अनन्तर १. मित्रा, २. तारा, ३. बला, ४. दीप्रा, ५. स्थिरा, ६. कान्ता, ७. प्रभा और ८. परा-इन आठ दृष्टियों का विषय विशद एवं मननीय निरूपित है। दीप्रा नाम की चौथी दृष्टि के निरूपण में अवेद्यसंवेद्य पद', वेद्यसंवेद्य पद, कुतर्कनिन्दा, सर्वज्ञ-तत्त्व और सर्वज्ञों में अभेद, सर्वज्ञ को देशना और सर्वज्ञवाद जैसे विविध अधिकार हैं। अन्त में १. गोत्रयोगी, २. कुलयोगी, ३. प्रवृत्तचक्रयोगी और ४. निष्पन्नयोगी के बारे में स्पष्टता की गई है । प्रस्तुत कृति में संसारी जीव की अचरमावर्तकालीन अवस्था को 'ओघदृष्टि'
और चरमावर्तकालीन अवस्था को 'योगदृष्टि' कहा है । आठ योगदृष्टियों में से पहली चार में मिथ्यात्व का अंश होने से उन्हें अवेद्यसंवेद्यपदवाली और अस्थिर एवं सदोष कहा है, जबकि अवशिष्ट चार को वेद्यसंवेद्यपदवाली कहा है । पहली चार दृष्टियों में चौदह गुणस्थानों में से आद्य गुणस्थान होता है, पाँचवीं और छठी में उसके बाद के तीन गुणस्थान, सातवीं में उनके बाद के दो और आठवीं में अवशिष्ट छः का समावेश होता है।
उपर्युक्त आठ दृष्टियों के विषय का आलेखन न्यायाचार्य श्री यशोविजयगणी ने द्वात्रिंशद्-द्वात्रिंशिका की द्वात्रिंशिका २१-२४ में तथा 'आठ योगदृष्टिनी सज्झाय' में किया है। स्व. मोतीचन्द गि. कापडिया ने इस विषय को लेकर गुजराती में 'जैन दृष्टिए योग'२ नाम की पुस्तक लिखी है । इसके अतिरिक्त इस विषय का निरूपण न्यायविशारद न्यायतीर्थ मुनि श्री न्यायविजयजी ने अध्यात्म-तत्त्वालोक में किया है।
स्वोपज्ञ वृत्ति-११७५ श्लोक-परिमाण यह वृत्ति ग्रन्थकार ने स्वयं रचकर मूल के विषय का विशद स्पष्टीकरण किया है। मित्रा आदि आठ दृष्टियों की पातंजल योगदर्शन ( २-२९ ) में आये यम, नियम, आसन, प्राणायाम प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि इन आठ योगांगों के साथ जैसे मूल में तुलना की है, उसी प्रकार उसकी तुलना श्लो०१६ की वृत्ति में खेद, उद्वेग, क्षेप, उत्थान,
१. जिसमें बाह्य वेद्य विषयों का यथार्थ रूप से संवेदन अर्थात् ज्ञान
नहीं होता। २. इसकी दूसरी आवृत्ति श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई ने वि. सं. २०१०
में प्रकाशित की है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org