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योग और अध्यात्म
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की रचना इस प्रकार हुई है कि उसके आधार पर मूल के प्राकृत पद्यों की संस्कृत छाया सुगमता से तैयार की जा सकती है। इसमें अपने तथा अन्यकर्तृक ग्रन्थों में से हरिभद्रसूरि ने उद्धरण दिये हैं। जैसे कि-योगबिंदु ( श्लो० ६७-६९, १०१-१०५, ११८, २०१-२०५, २२२-२२६, ३५८, ३५९ ), लोकतत्त्वनिर्णय ( श्लो० ७ ) शास्त्रवार्तासमुच्चय ( स्त० ७, श्लो० २-३ ) और अष्टकप्रकरण ( अष्टक २९ )। ये सब स्वरचित ग्रन्थ हैं । निम्नांकित प्रतीक वाले उद्धरणों के मूल अज्ञात हैं :
श्रेयांसि बहुविघ्नानि० ( पृ० १ ), शक्तिः सफलैर्व० ( पृ० ५ ), ऊर्ध्वाधःसमाधि० ( पृ० ९), सम्भृतसुगुप्त० (पृ. १०), सांसिद्धिक० (पृ० १६ ), आग्रही बत० ( पृ० ३९ ), द्विविधं हि भिक्षवः ! पुण्यं० (पृ० ३८) धर्मधाता० ( पृ० ४०), पञ्चाहात्० ( पृ० ४२), प्रध्मान (पृ० ४३ ) और जल्लेसे मरड (पृ० ४३ )। योगदृष्टिसमुच्चय :
यह कृति श्री हरिभद्रसूरि ने २२६ पद्यों में रची है। इसमें योग के १. इच्छा-योग, २. शास्त्र-योग और ३. सामर्थ्य-योग इन तीन भेदों का तथा सामर्थ्य-योग के धर्मसंन्यास और योगसंन्यास इन दो उपभेदों का निरूपण किया
१. पृ० ११ पर षष्टितंत्र और भगवद्गीता के उद्धरण हैं। २. ये पद्य अन्यकर्तृक हैं, परन्तु योगबिन्दु में इस तरह गूंथ लिये हैं कि वे
मूलके से प्रतीत होते हैं। ३. यह कृति स्वोपज्ञ वृत्ति के साथ देवचंद लालभाई जैन पुस्तकोद्धार
संस्था, सूरत ने सन् १९११ में प्रकाशित की है। इसके अतिरिक्त वृत्ति के साथ मूल कृति जैन ग्रन्थ प्रकाशक सभा ने सन् १९४० में प्रकाशित की है। मूल कृति, उसका दोहों में गुजराती अनुवाद, प्रत्येक पद्य का अक्षरशः गद्यात्मक अनुवाद, हारिभद्रीय वृत्ति का अनुवाद, इस वृत्ति के आधार पर 'सुमनोनन्दिनी बृहत् टीका' नामक विस्तृत विवेचन, प्रत्येक अधिकार के अन्त में उसके साररूप गुजराती पद्य, उपोद्धात और विषयानुक्रमणिका--- इस प्रकार डा० भगवानदास म० महेता द्वारा तैयार की गई विविध सामग्री के साथ श्री मनसुखलाल ताराचन्द महेता ने 'योगदृष्टिसमुच्चय सविवेचन' नाम से बम्बई से सन् १९५० में यह ग्रन्थ प्रकाशित किया है।
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