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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास नमस्कार की उदारवृत्ति के बारे में 'चारिसंजीवनी' न्याय और कालातीत की अनुपलब्ध कृति में से सात अवतरण ।
योगबिन्दु के श्लोक ४५९ में “समाधिराज'' नामक बौद्ध ग्रन्थ का उल्लेख आता है, परन्तु वृत्तिकार को इसकी स्मृति न होने से उसका कोई दूसरा ही अर्थ किया है।
योगबिन्दु में योग के अधिकारी-अनधिकारी का निर्देश करते समय मोह में मुग्ध-अचरमावर्त में विद्यमान संसारी जीवों को उन्होंने 'भवाभिनन्दी' कहा है, जबकि चरमावर्त में विद्यमान शुक्लपाक्षिक, भिन्नग्रन्थि और चारित्री जीवों को योग के अधिकारी माना है। इस अधिकार की प्राप्ति पूर्वसेवा से हो सकती है-ऐसा कहते समय पूर्वसेवा का अर्थ मर्यादित न करके विशाल किया है । उन्होंने उसके चार अंग गिनाये है : १. गुरुप्रतिपत्ति अर्थात् देव आदि का पूजन; २. सदाचार, ३. तपश्चर्या और ४. मुक्ति के प्रति अद्वेष । गुरु अर्थात् माता, पिता, कलाचार्य, सगे-सम्बन्धी (ज्ञातिजन ), वृद्ध और धर्मोपदेशक । इस प्रकार हरिभद्रसूरि ने 'गुरु' का विस्तृत अर्थ किया है । आजकल पूर्वसेवा का
ये हरिभद्र सूरि के पुरोगामी कहे जा सकते हैं। 'समदर्शी आचार्य हरिभद्र' (पृ० ८० ) में ये शव, पाशुपत या अवधूत परम्परा के होंगे
ऐसी कल्पना की गई है। १. यह बौद्ध ग्रन्थ ललितविस्तर की तरह मिश्र संस्कृत में रचा गया है।
इसका उल्लेख श्लो० ४५९ में नैरात्म्यदर्शन से मुक्ति माननेवाले के मन्तव्य की आलोचना करते समय आता है । इस मन्तव्य का निरूपण 'समाधिराज' ( परिवर्त ७, श्लो० २८-२९ ) में आता है। यह समाधिराज ग्रन्थ दो स्थानों से प्रकाशित हुआ है : १. गिलिगट मेन्युस्क्रिप्ट्स के द्वितीय भाग में सन् १९४१ में और २. मिथिला इन्स्टिट्यूट, दरभंगा (बिहार) से सन् १९६१ में । प्रथम प्रकाशन के सम्पादक डा० नलिनाक्षदत्त हैं और दूसरे के डा० पी० एल० वैद्य । डा० वैद्य द्वारा सम्पादित समाधिराज बौद्ध संस्कृत ग्रन्थावली के द्वितीय ग्रन्थ के रूप में प्रकाशित हुआ है ।
समाधिराज के तीन चीनी अनुवाद हुए हैं। चौथा अनुवाद भोट भाषा में हुआ है । इस चौथे अनुवाद में सर्वाधिक प्रक्षिप्तांश हैं, ऐसा माना जाता है।
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