SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 248
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३३ योग और अध्यात्म जो ह्रास हो रहा है वह शोचनीय है । आधुनिक शिक्षा में पूर्वसेवा को धार्मिक शिक्षा को नींव के रूप में मान्य रखा जाय तो आज की विषम परिस्थिति में खूब लाभ हो सकता है। वत्ति-'सयोगचिन्तामणि' से शुरू होनेवाली इस वृत्ति का श्लोकपरिमाण ३६२० है । योगबिन्दु के स्पष्टीकरण के लिए यह वृत्ति अति महत्त्व को है । कई लोग इसे स्वोपज्ञ मानते हैं, परन्तु 'समाधिराज का जो भ्रान्त अर्थ किया गया है उससे यह मान्यता अनुचित सिद्ध होती है। योगदृष्टिसमुच्चय तथा योगशतक पर एक-एक स्वोपज्ञ वृत्ति है और वह मिलती भी है। योगबिन्दु पर भी स्वोपज्ञ वृत्ति होगी, ऐसी कल्पना होती है।' योगशतक ( जोगमयग ) : श्री हरिभद्रसूरि ने संस्कृत में जैसे योगविषयक ग्रन्थ लिखे हैं वैसे प्राकृत में भी लिखे हैं। उनमें से एक है योगशतक तथा दूसरा है वीसवीसिया की जोग १. प्रो० मणिलाल न० द्विवेदी ने योगबिन्दु का गुजराती अनुवाद किया था और वह 'वडोदरा देशी केलवणीखातुं' ने सन् १८९९ में प्रकाशित किया था। योगबिन्दु एवं उसकी अज्ञातकर्तृक वृत्ति आदि के बारे में विशेष जानकारी के लिए लेखक के 'श्री हरिभद्रसूरि' तथा 'जैन संस्कृत साहित्यनो इतिहास' ग्रन्थ देखिए। यह गुजराती अर्थ, विवेचन, प्रस्तावना, विषय-सूची तथा छ: परिशिष्टों के साथ अहमदाबाद से 'गुजरात विद्यासभा' ने प्रकाशित किया है । इसका सम्पादन डा० इन्दुकला हीराचन्द झवेरी ने किया है। इस कृति का नाम 'योगशतक' रखा है । सन् १९६५ में यही कृति स्वोपज्ञ वृत्ति तथा ब्रह्मसिद्धान्तसमुच्चय के साथ 'योगशतक' के नाम से लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबाद ने प्रकाशित की है। इसका सम्पादन मुनि श्री पुण्यविजयजी ने किया है। उनकी अपनी संस्कृत प्रस्तावना, डा० इन्दुकला ही० झवेरी के अंग्रेजी उपोद्धात, संस्कृत में विषयानुक्रम, डा० के० के० दीक्षितकृत योगशतक का अंग्रेजी अनुवाद, आठ परिशिष्ट तथा योगशतक एवं ब्रह्मसिद्धान्तसमुच्चय की ताडपत्रीय प्रतियों के एक-एक पत्र की प्रतिकृति से यह समृद्ध है। डा० इन्दुकला झवेरी द्वारा सम्पादित योगशतक का हिन्दी अनुवाद भी गुजरात विद्यासभा ने प्रकाशित किया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002097
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, Agam, Karma, Achar, & Philosophy
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy