________________
योग और अध्यात्म
२३१
पर प्रकाश डालती है । इसमें विविध विषयों का निरूपण आता है; जैसेयोग का प्रभाव, योग की भूमिका के रूप में पूर्वसेवा, विष, गर, अनुष्ठान, तद्धेतु और अमृत ये पाँच प्रकार के अनुष्ठान', सम्यक्त्व की प्राप्ति में साधनभूत यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण का विवेचन, विरति, मोक्ष, आत्मा का स्वरूप, कार्य की सिद्धि में स्वभाव, काल आदि पाँच कारणों का बलाबल, महेश्वरवादी एवं पुरुषाद्वैतवादी के मतों का निरसन, अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता और वृत्तिसंक्षेप इन पाँच आध्यात्मिक विकास की भूमिकाओं में से प्रथम चार का पतंजलि के कथनानुसार सम्प्रज्ञात के रूप में और अन्तिम का असम्प्रज्ञात के रूप में निर्देश, गोपेन्द्र और कालातीत के मन्तव्य तथा सर्वदेव
( L. Suali ) ने किया है । इसके पश्चात् यही कृति 'जैन ग्रन्थ प्रसारक सभा' ने सन् १९४० में प्रकाशित की है । केवल मूल कृति गुजराती अर्थ (अनुवाद) और विवेचन के साथ 'बुद्धिसागर जैन ज्ञानमन्दिर' ने 'सुखसागरजी ग्रन्थमाला' के तृतीय प्रकाशन के रूप में सन् १९५० में प्रकाशित की है । आजकल यह मूल कृति अंग्रेजी अनुवाद आदि के साथ लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबाद की ओर से छप रही है ।
१. वैयाकरण विनयविजयगणी ने 'श्रीपालराजानो रास' शुरू किया था, परन्तु वि० सं० १७३८ में उनका अवसान होने पर अपूर्ण रहा था । न्यायाचार्य श्री यशोविजयजी ने तृतीय खण्ड की पाँचवीं ढाल अथवा उसके अमुक अंश से आगे का भाग पूर्ण किया है। उन्होंने चतुर्थ ढाल के २९ वें पद्य में इन विषादि पाँच अनुष्ठानों का ३० - ३३ में उनका विवेचन किया है। इसके अलावा २६ वें पद्य में भी अनुष्ठान से सम्बद्ध प्रीति, भक्ति, वचन और असंग का उन्होंने निर्देश किया है ।
खण्ड की सातवीं उल्लेख करके पद्य
२. श्री हरिभद्रसूरि ने अन्य सम्प्रदायों के जिन विद्वानों का मानपूर्वक निर्देश किया है उनमें से एक यह गोपेन्द्र भी है । इन सांख्ययोगाचार्य के मत के साथ उनका अपना मत मिलता है ऐसा उन्होंने कहा है । हरिभद्रसूरि ने ललितविस्तरा ( १० ४५ आ ) में 'भगवद्गोपेन्द्र' ऐसे सम्मानसूचक नाम के साथ उनका उल्लेख किया है । गोपेन्द्र अथवा उनकी किसी कृति के बारे में किसो अजैन विद्वान् ने निर्देश किया हो तो ज्ञात नहीं । ३. ये परस्पर विरुद्ध बातों का समन्वय करते हैं । इस दृष्टि से इस क्षेत्र में
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org