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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास तीन गुप्तियों का अथवा योगविषयक कोई अन्य बात होगी यह बताना सम्भव नहीं है। इस योगनिर्णय का श्री हरिभद्रसूरि ने ही उल्लेख किया है। किसी अजैन विद्वान् ने किया हो तो ज्ञात नहीं। इसके अतिरिक्त इसके साथ उत्तराध्ययन का उल्लेख होने से यह एक जैन कृति होगी ऐसा मेरा मानना है । इसके रचनाकाल की उत्तरावधि विक्रम की ८ वीं सदी है : योगाचार्य की कृति :
__ योगदृष्टिसमुच्चय के श्लोक १४, १९, २२, २५ और ३५ की स्वोपज्ञ वत्ति में 'योगाचार्य' का उल्लेख आता है। 'ललितविस्तरा' (प० ७६ अ ) में 'योगाचार्याः' ऐसा उल्लेख है। ये दोनों उल्लेख एक ही व्यक्ति के विषय में होंगे। ऐसा लगता है कि कोई जैन योगाचार्य हरिभद्रसूरि के पहले हुए हैं । उनकी कोई कृति इस समय उपलब्ध नहीं है । यह कृति विक्रम की सातवीं शतो की तो होगी ही। हारिभद्रीय कृतियाँ :
समभावभावी श्री हरिभद्रसूरि' ने योगविषयक अनेक ग्रन्थ लिखे हैं; जैसे १. योगबिन्दु, २. योगदृष्टिसमुच्चय, ३. योगशतक, ४. ब्रह्मसिद्धान्तसमुच्चय, ५. जोगविशिका और ६. षोडशक के कई प्रकरण ( उदाहरणार्थ १०-१४ और १६)। अन्य ग्रन्थों में भी प्रसंगोपात योगविषयक बातों को हरिभद्रसूरि ने स्थान दिया है। इन सब कृतियों में से 'ब्रह्मसिद्धान्तसमुच्चय' के बारे में अभी थोड़े दिन पहले ही जानकारी प्राप्त हुई है। उसके तथा अन्य कृतियों के प्रकाश के विषय में आगे निर्देश किया गया है। योगबिन्दु :
अनुष्टुप् छन्द के ५२७ पद्यों में रचित हरिभद्रसूरि की यह कृति अध्यात्म
१. इनके जीवन एवं रचनाओं के बारे में मैंने 'अनेकान्त-जयपताका' के खण्ड
१ ( पृ० १७.२९ ) और खण्ड २ ( पृ० १०-१०६ ) के अपने अंग्रेजी उपोद्धात में तथा श्री हरिभद्रसूरि, षोडशक की प्रस्तावना, समराइच्चकहाचरिय के गुजराती अनुवादविषयक अपने दृष्टिपात आदि में कतिपय बातों का निर्देश किया है। उपदेशमाला और ब्रह्मसिद्धान्तसमुच्चय भी उनकी
कृतियाँ हैं । इनमें भी उपदेशमाला तो आज तक अनुपलब्ध ही है। २. यह कृति अज्ञातकर्तक वृत्ति के साथ 'जैनधर्म प्रसारक सभा' ने सन्
१९११ में प्रकाशित की है। इसका सम्पादन डा० एल० सुआली
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