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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
संबोहपयरण ( सम्बोधप्रकरण ) अथवा तत्तपयासग ( तत्त्वप्रकाशक ) :
१५९० पद्य की यह कृति हरिभद्रसूरि ने मुख्य रूप से जैन महाराष्ट्री में लिखी है । यह बारह अधिकारों में विभक्त है । इसमें देव, सद्गुरु, कुगुरु, सम्यक्त्व, श्रावक और उसकी प्रतिमा एवं व्रत, संज्ञा, लेश्या, ध्यान, आलोचना आदि बातों का निरूपण है । इसकी कई गाथाएँ रत्नशेखरसूरि ने संबोहसत्तरि में उद्धृत की हैं। 3
१. संबो हसत्तरि ( सम्बोधसप्तति ) :
परन्तु
यह कृति हरिभद्रसूरि ने लिखी थी ऐसा कई लोगों का मानना है, इसकी एक भी हस्तलिखित प्रति उपलब्ध नहीं है ।
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२. बोहत्तर ( सम्बोध सप्तति) :
७५ या ७६ पद्य की जैन महाराष्ट्री में रचित इस कृति के प्रणेता रत्नशेखरसूरि हैं । ये जयशेखरसूरि के शिष्य वज्रसेनसूरि के शिष्य थे । यह पुरोगामियों के ग्रन्थों में से गाथाएँ उद्धृत करके रचित कृति है । इसमें देव, गुरु, कुगुरु, धर्म का स्वरूप, सम्यक्त्व की दुर्लभता, सूरि के ३६ गुण, सामान्य साधु एवं श्रावक के गुण, जिनागम का माहात्म्य, द्रव्यस्तव और भावस्तव का फल, शील की प्रधानता, कषाय, प्रमाद, निद्रा, श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएँ, अब्रह्म और मांस के दोष, जिनद्रव्य और पूजा – इन विविध बातों का निरूपण है ।
टीकाएँ - इस पर अमरकीर्तिसूरि की एक वृत्ति है । ये मानकांतिगणी के शिष्य थे । इस वृत्ति के प्रारम्भ में दो तथा अन्त में तीन पद्य हैं । यह वृत्ति
१. यह जैनधर्म प्रसारक सभा ने सन् १९१६ में छपवाया है । इसमें अनेक यंत्र हैं । इसे सम्बोधतत्त्व भी कहते हैं ।
२. द्वितीय अधिकार के ५ से १२ पद्य संस्कृत में हैं ।
३. इसका गुजराती अनुवाद विजयोदयसूरि के शिष्य पं० मेरुविजयगणी ने किया है । यह अनुवाद जैनधर्म प्रसारक सभा ने सन् १९५१ में प्रकाशित किया है । इसके अन्तिम पृ० २६५- ३०० पर हरिभद्रकृत पूयापंचासग, जिणचेइयवंदणविहि और दिक्खापयरण के गुजराती अनुवाद दिये गये हैं । ४. यह अमरकीर्तिसूरि की टीका के साथ हीरालाल हंसराज ने सन् १९११ में इसके अलावा यही मूल कृति सभा ने वि० सं० १९७२ में
छपाई है। इसमें मूल की ७६ गाथाएँ हैं । गुणविनय की वृत्ति के साथ जैन आत्मानन्द प्रकाशित की है । इसमें ७५ गाथाएँ हैं ।
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