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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास ३. धर्मकल्पद्रुम :
इस नाम की दो अज्ञातकर्तृक कृतियाँ भी हैं । विवेगमंजरी ( विवेकमञ्जरी ) :
जैन महाराष्ट्री में रचित १४४ पद्य की यह कृति' आसड़ ने वि० सं० १२४८ में लिखी है। इसके पहले पद्य में महावीरस्वामी को वन्दन किया गया है । इसके पश्चात् विवेक की महिमा बताई गई है और उसके भूषण के रूप में मन को शुद्धि का उल्लेख किया गया है। इस शुद्धि के चार कारण बतला कर उनका विस्तार से निरूपण किया गया है। वे चार कारण इस प्रकार हैं : १. चार शरणों की प्रतिपत्ति अर्थात् उनका स्वीकार, २. गुणों की सच्ची अनुमोदना, ३. दुष्कृत्यों की-पापों की निन्दा और ४. बारह भावनाएँ ।'
तीर्थंकर, सिद्ध, साधु और धर्म-इन चारों को मंगल कहकर इन की शरण लेने के लिए कहा है। इसमें वर्तमान चौबीसी के नाम देकर उन्हें तथा अतीत चौबीसी आदि के तीर्थङ्करों को नमस्कार किया गया है। प्रसंगोपात्त दृष्टान्तों का भी निर्देश किया गया है। गाथा ५०-३ में भिन्न-भिन्न मुनियों के तथा गाथा ५६-८ में सीता आदि सतियों के नाम आते हैं। इसके प्रारम्भ की सात गाथाओं में से छः गाथाएँ तीर्थंकरों की स्तुतिपरक हैं।
टोका-इसपर बालचन्द्र की एक वृत्ति है। इसकी वि० सं० १३२२ की लिखी हुई एक हस्तलिखित प्रति मिली है । इस वृत्ति के मूल में सूचित दृष्टातों के स्पष्टीकरण के लिये संस्कृत श्लोकों में छोटी-बड़ी कथाएँ दी गई हैं । उदाहरणार्थबाहुबलि की कथा ( 'भारत-भूषण' नाम के चार सर्गों के रूप में महाकाव्य के नाम से अभिहित ), सनत्कुमारकी कथा, स्थूलिभद्र की कथा, शालिभद्र की कथा, वज्रस्वामी की कथा, अभयकुमार की कथा ( चार प्रकार की बुद्धि के ऊपर एकएक प्रकाश के रूप में ), सीता की कथा ( 'सीताचरित' नाम के चार सर्गों में
१. 'जैन विविध साहित्य शास्त्रमाला' में यह ( गा० १.५८) बालचन्द्र की
वृत्ति के साथ प्रथम भाग के रूप में बनारस से वि० सं० १९७५ में छपी थी। इसका दूसरा भाग वि० सं० १९७६ में प्रकाशित हुआ था। इसमें
५९ से १४४ गाथाएँ दी गई हैं ।। २. इन चारों को चार द्वार कहकर वृत्तिकार ने प्रत्येक द्वार के लिए 'परिमल' ___ संज्ञा का प्रयोग किया है । प्रथम परिमल में २५ गाथाएँ हैं ।
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