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धर्मोपदेश
२१५ अन्त में चौदह श्लोकों की प्रशस्ति है । मूल में सूचित दृष्टान्तों के स्पष्टीकरण के लिए ३९ कथाएँ दी गई हैं। वे कथाएँ इस प्रकार हैं : गुणसुन्दरी और पुण्यपाल, द्वैपायन और विश्वामित्र, नारद, रिपुमर्दन नृप, विजयपाल नृप, ब्रह्मा, चन्द्र, सूर्य, इन्द्र, आर्द्रकुमार, नन्दिषेण मुनि, रथनेमि, नेमिनाथ, मल्लिनाथ, स्थूलभद्र, वज्रस्वामी, सुदर्शन श्रेष्ठी, वंकचूल, सुभद्रा, मदनरेखा, सुन्दरी, अंजना, नर्मदासुन्दरी, रतिसुन्दरी, ऋषिदता, दबदन्ती, कमला, कलावती, शीलवतो, नन्द यति, रोहिणी, कुलवालक, द्रौपदो, नूपुरपण्डिता, दत्तदुहिता, अगडदत्त, प्रदेशी नृप, सीता और धनश्री।
इसके अतिरिक्त इस पर एक अज्ञातकर्तृक वृत्ति भी है । ललितकोति एवं पुण्यकीर्ति ने मूल ग्रन्थ पर एक-एक टीका लिखी है।
खरतरगच्छ के रत्नमूर्ति के शिष्य मेरुसुन्दर ने इस पर एक बालावबोध लिखा है।' १. धर्मकल्पद्रुम :
प्रासंगिक कथाओं और सुभाषितों से अलंकृत यह कृति ४२४८ श्लोकों में आगम-गच्छ के मुनिसागर के शिष्य उदयधर्मगणी ने लिखी है। इन्होंने वि० सं० १५४३ में मलयसुन्दरीरास और १५५० में कथाबत्तीसी की रचना की है।
प्रस्तुत ग्रन्थ दान-धर्म, शोल-धर्म, तपो-धर्म और भाव-धर्म-इन चार शाखाओं में विभक्त है। इनमें से पहली शाखा के तीन, दूसरी के दो, तीसरी का एक और चौथी के दो पल्लव हैं। इस तरह अष्टपल्लवयुक्त यह कृति दान आदि चतुर्विध धर्म का बोध कराती है। इसमें क्रमशः ३४०, ५२५, ६४४, ४५७, ८६७, ६२८, ४०० और ३८७ पद्य हैं। प्रथम पल्लव में धर्म की महिमा का वर्णन है । इस ग्रन्थ का संशोधन धर्मदेव ने किया । २. धर्मकल्पद्रुम :
यह पूर्णिमागच्छ के धर्मदेव को वि० सं० १६६७ की रचना है, ऐसा उल्लेख मिलता है।
१. मूल कृति एवं शीलतरंगिणी टोका का गुजराती अनुवाद जैन विद्याशाला के
किसी शास्त्री ने किया है और वह छपा भी है । २. यह कृति देवचंद लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था ने वि० सं० १९७३ में
प्रकाशित की थी, किन्तु उसमें अशुद्धियां होने से जैनधर्म प्रसारक सभा ने वि० सं० १९८४ में दुसरी आवृत्ति प्रकाशित की।
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