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धर्मोपदेश
धर्मोपदेशप्रकरण :
८३३२ श्लोक-परिमाण यह कृति यशोदेव ने वि० सं० १३०५ में रची है । इसे प्राकृतमूल तथा बहुकथासंग्रह भी कहते हैं । धर्म सर्वस्वाधिकार :
उपदेशचिन्तामणि आदि के प्रणेता जयशेखरसूरि ने २०० श्लोक में इसकी " रचना की है। पहले श्लोक में कहा है कि धर्म का रहस्य सुनना चाहिए, सुनकर उस धर्म को धारण करना चाहिए और अपने आपको जो बात प्रतिकूल हो उसका दूसरे के प्रति आचरण नहीं करना चाहिए। दूसरे श्लोक में कहा है कि जिस प्रकार सोने की कष ( कसौटी पर कसना ), ताप, छेदन और ताडन इन चार प्रकारों से परीक्षा की जाती है, उसी प्रकार धर्म की श्रुत ( ज्ञान ), शील, तप और दया के गुणों से परीक्षा करनी चाहिए। इस कृति में अहिंसा की महिमा, मांसभक्षण के दोष, ब्राह्मण के लक्षण, अब्रह्म के दूषण, ब्रह्मचर्य के गुण, क्रोधः एवं क्षमा का स्वरूप, रात्रि भोजन के दोष, तीर्थों का अधिकार, बिना छना पानी का उपयोग करने में दोष, तप एवं दान की महिमा, अतिथि का स्वरूप तथा शहद खाने के और कन्दमूलभक्षण के दोष - ऐसी विविध बातों का वर्णन आता है । ऐसा करते समय महाभारत, स्मृति आदि अजैन ग्रन्थों में से प्रस्तुत विषय से सम्बद्ध पद्य कहीं-कहीं गूंथ लिये गये हैं और इस प्रकार अजैनों को भी जैन मन्तव्य रुचिकर प्रतीत हों, ऐसा प्रयत्न किया है । २
भवभावणा ( भवभावना )
२०७०
यह कृति उवएसमाला इत्यादि के रचयिता मलधारी हेमचन्द्रसूरि की है । इसमें उपमितिभवप्रपंचा कथा के आधार पर आयोजित रूपक आते हैं । जैन १. हीरालाल हंसराजकृत गुजराती अनुवाद के साथ इसे भीमसी माणेक ने सन् १९०० में प्रकाशित किया है। इसके साथ कर्पूरप्रकर तथा उसका हीरालाल हंसराजकृत गुजराती अनुवाद भी दिया गया है। इस प्रकाशन का नाम 'धर्मसर्वस्वाधिकार' तथा 'कस्तुरीप्रकरण' है, परन्तु 'कस्तुरीप्रकरण के बदले 'कस्तुरीप्रकर' होना चाहिए ।
२. इसका हीरालाल हंसराज ने गुजराती में अनुवाद किया है और वह छपा भी है ।
३, यह कृति स्वोपज्ञ टीका के साथ ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था ने दो भागों में प्रकाशित को है । प्रथम भाग में १ से ३६० पत्र हैं, जबकि दूसरे ३६१ से ६९२ हैं । दूसरे भाग में संस्कृत उपोद्घात, विषयानुक्रम एवं पाँच परिशिष्ट आदि हैं ।
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