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धर्मोपदेश
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टोका-स्वयं कर्ता ने इस पर एक वृत्ति लिखी है। इसका अथवा मूलसहित इसका परिमाण ७६७५ श्लोक है। अपरतट पर वृत्ति नहीं है।'
१. उपदेशसप्ततिका :
इसका दूसरा नाम 'गृहस्थधर्मोपदेश' भी है । वि० सं० १५०३ में रचित ३००० श्लोक-परिमाण की इस कृति के रचयिता सोमधर्मगणी हैं। ये सोमसुन्दरसूरि के शिष्य चारित्ररत्नगणी के शिष्य थे । यह पाँच अधिकारों में विभक्त है। इसमें उपदेशात्मक ७५ कथाएँ हैं । प्रस्तुत कृति में देव-तत्त्व, गुरु-तत्त्व और धर्म-तत्त्व का निरूपण है । पहले और तीसरे तत्त्व के लिये दो-दो और दूसरे के लिये एक अधिकार है। इन पांच अधिकारों में से पहले अधिकार में तीर्थंकर की पूजा, देवव्रत इत्यादि विषय है। दूसरे में तोर्थ का और तीसरे में गुरु के गुणों का कोर्तन, वन्दन एवं उनकी पूजा का वर्णन आता है। चौथा चार कषायविषयक है और पांचवां गृहस्थ-धर्मविषयक है।
२. उपदेशसप्ततिका:
इसकी रचना खरतरगच्छ के क्षेमराज ने की है ।
टोकाएँ-इसपर स्वयं लेखक की एक टीका है । ७९७५ श्लोक-परिमाण यह टीका वि० सं० १५४७ में लिखी गई थी। इसके अतिरिक्त एक अज्ञातकर्तृक टीका भी है।
१. श्री चन्दनसागरजी ने इस मूल कृति का गुजराती में अनुवाद किया है और
वह छपा भी है। २. यह कृति जैन आत्मानन्द सभा ने वि० सं० १९७१ में प्रकाशित की है ।
इसके अतिरिक्त 'जैन सस्तु साहित्य ग्रन्थमाला' में वि० सं० १९९८ में भी
यह प्रकाशित हुई है। ३. इसका गुजराती अनुवाद जैन आत्मानन्द सभा ने प्रकाशित किया है। ४. यह ग्रन्थ स्वोपज्ञ टीका एवं गुजराती अनुवाद के साथ जैनधर्म प्रसारक
सभा ने ( मूल और टीका सन् १९१७ में तथा अनुवाद वि० सं० १९७६ में ) प्रकाशित किया है।
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