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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास उपदेशतरंगिणी :
३३०० श्लोक-परिमाण की इस गद्यात्मक कृति' को 'धर्मोपदेशतरंगिणी' भी कहते हैं। इसके रचयिता हैं रत्नमन्दिरगणी । ये तपागच्छ के सोमसुन्दरसूरि के शिष्य नन्दिरस्नगणी के शिष्य थे। इन्होंने वि० सं० १५१७ में 'भोजप्रबन्ध' लिखा है । अनेक दृष्टान्त एवं सूक्तियों से अलंकृत प्रस्तुत कृति का प्रारम्भ शत्रुजय इत्यादि विविध तीर्थों के संकीर्तन के साथ किया गया है। यह कृति कमोबेश उपदेशवाले पाँच तरंगों में विभक्त है। अन्तिम दो तरंग पहले तीन की अपेक्षा बहुत छोटे हैं। पहले तरंग में दान, शील, तप और भाव का निरूपण है । दूसरे में जिनमन्दिर इत्यादि सात क्षेत्रों में दान देने का कथन है । तीसरे तरंग में जिनपूजा का, चौथे में तीर्थयात्रा का और पांचवें में धर्मोपदेश का अधिकार है। पत्र २६८ में वसन्तविलास के नामोल्लेख के साथ एक उद्धरण दिया गया है । १. आत्मानुशासन:
यह हरिभद्रसूरि की कृति मानी जाती है, परन्तु अबतक यह उपलब्ध नहीं है। २. आत्मानुशासन :
२७० श्लोकों की यह कृति दिगम्बर जिनसेनाचार्य के शिष्य गुणभद्र की रचना है। इसमें विविध छन्दों का उपयोग किया गया है। इसमें शिकार का
१. यह कृति यशोविजय जैन ग्रन्थमाला में बनारस से वीर संवत् २४३७ में
प्रकाशित हुई है । इसकी वि० सं० १५१९ की एक हस्तलिखित प्रति मिली है। इसकी जानकारी मैंने DCGCM ( Vol. XVIII, Part I,
No. 201 ) में दी है। २. इसका हीरालाल हंसराज ने गुजराती में अनुवाद किया है, जो अनेक
दृष्टियों से दूषित है। ३. यह 'सनातन जैन ग्रन्थमाला' में सन् १९०५ में प्रकाशित हुआ है। टीका
एवं जगमन्दरलाल जैनी के अंग्रेजी अनुवाद के साथ यह Sacred Books of the Jainas ग्रन्थमाला में आरा से सन् १९२८ में छपा है। पं० टोडरमलरचित भाषाटीका के साथ इसे इन्द्रलाल शास्त्री ने जयपुर से 'मल्लिसागर दि० जैन ग्रन्थमाला' में वीर संवत् २४८२ में छपाया है। इसके अतिरिक्त पं० वंशीधर शास्त्रीकृत भाषाटीकासहित भी मूल कृति छपी है।
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