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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास निरूपित है। सातवें में मोह और विवेक का युद्ध, विवेक की जय, परमात्मा का वर्णन और ग्रन्थकार की प्रशस्ति है। इसमें प्रसंगोपात्त अजैन दर्शनों के बारे में भी जानकारी दी गई है। उपदेशरत्नाकर :
यह अध्यात्मकल्पद्रुम आदि के रचयिता और सोमसुन्दरसूरि के शिष्य सहस्रावधानी मुनिसुन्दरसूरि की पद्यात्मक कृति है। अनेक दृष्टान्तों से अलंकृत यह कृति सर्वांशतः संस्कृत या जैन महाराष्ट्री में नहीं है। इसमें कुल ४४७ पद्य हैं, जिनमें से २३४ संस्कृत में और अवशिष्ट २१३ जैन महाराष्ट्री में हैं । बीचबीच में ५६ पद्य उद्धरणरूप आते हैं । उन्हें न गिनें तो यह कृति ३९१ पद्यों की कही जा सकती है।
यह समग्र कृति तीन अधिकारों में विभक्त है। इसमें प्रथम अधिकार को 'प्राच्यतट' और अन्तिम को 'अपरतट' कहा है। पहले के दो अधिकारों में चार-चार अंश और प्रत्येक अंश में अल्पाधिक तरंग हैं । अन्तिम तट के आठ विभाग हैं और इनमें से पहले के चार का 'तरंग' के नाम से निर्देश है।
इस कृति में विविध विषयों का निरूपण किया गया है, जैसे कि श्रोता की योग्यता, गुरुओं की योग्यता, सच्चा धर्म, जीवों का वैविध्य, साधुओं की वृत्ति, धर्म का फल, क्षत्रिय आदि के धर्म, जिनपूजा और जिनेश्वर का स्वरूप ।
१. इस कृति के पहले दो अधिकारों का स्वोपज्ञ वृत्तिसहित प्रकाशन देवचन्द
लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था ने सन् १९१४ में किया है। जिनरत्नकोश (वि० १, पृ० ५२ ) में इस प्रकाशन का वर्ष सन् १९२२ दिया है, किन्तु वह भ्रान्त है । इसकी सम्पूर्ण आवृत्ति चन्दनसागरजी के गुजराती अनुवाद और मेरी विस्तृत प्रस्तावना के साथ 'जैन पुस्तक-प्रचारक संस्था' ने
वि० सं० २००५ में प्रकाशित की है । २. इनके जीवनकाल एवं कृति-कलाप के विषय में मैंने उपयुक्त भूमिका
(१० ५९-९२) में ब्योरेवार परिचय दिया है । इनका जन्म
वि० सं० १४०३ और स्वर्गवास वि० सं० १५०३ में माना जाता है। ३. देखिये-उपर्युक्त भूमिका (पृ. ८)। वहाँ कुछ विशेष बातें दी
गई हैं।
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