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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास प्रस्तुत कृति के ४, ६, २७, २९, ३३, ३४, ६९ और ७१ पद्य गणहरसद्धसयग ( गणधरसार्धशतक ) की सुमतिगणी की बृहद्वृत्ति में उद्धृत किये गये हैं।
टोकाएं-जिनपाल ने वि० सं० १२९२ में संस्कृत में एक व्याख्या लिखो है । इसके अतिरिक्त भांडागारिक नेमिचन्द्र ने इसपर एक विवरण लिखा था, ऐसा कई लोगों का कहना है ।
उपदेशकन्दली :
__ जैन महाराष्ट्री के १२५ पद्य में रचित इस कृति के प्रणेता आसड हैं । ये 'भिन्नमाल' कुल के कटुकराज के पुत्र और जासड के भाई थे। इनकी माता का नाम रआनलदेवी था। इनको यह रचना अभयदेवसूरि के उपदेश का परिणाम है। इन्हीं आसड ने वि० सं० १३४८ में विवेग मंजरी (विवेकमंजरी ) लिखी है । इनकी पृथ्वीदेवी और जैतल्ल नाम की दो पत्नियां थीं। जैतल्लदेवी से इन्हें राजड और जैत्रसिंह नाम के दो पुत्र हुए थे।
टोका-उपर्युक्त अभयदेवसूरि के शिष्य हरिभद्रसूरि के शिष्य बाल चन्द्र सूरि ने आसड के पुत्र जैत्रसिंह की विज्ञप्ति से इसपर ७,६०० श्लोक-परिमाण की एक टीका लिखी थी और इस कार्य में प्रद्युम्न एवं पद्मचन्द्र ने सहायता की थी। इसकी वि० सं० १२९६ में लिखी गई एक हस्तलिखित प्रति मिलती है। इस टीका का तथा मूल कृति का कुछ भाग Descriptive Catalogue of Govt. Collections of Mss. ( Vol. XVIII, part 1 ) में छपा है।
हितोपदेशमाला-वृत्ति :
इसे हितोपदेशमाला प्रकरण भी कहते हैं। यह प्रकरण परमानन्दसूरि ने वि० सं० १३०४ में लिखा था। ये नवांगीवृत्तिकार अभयदेवसूरि के शिष्य देवभद्रसूरि के शिष्य थे।
१. ये 'चन्द्र' कुल के देवेन्द्रसूरि के शिष्य भद्रेश्वर के पट्टधर थे। २. ये देवानन्द-गच्छ के कनकप्रभ के शिष्य थे । ३. ये बृहद्-गच्छ के धनेश्वरसूरि के शिष्य थे । ४. देखिए-जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, पृ० ४०९.
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